बच्चों में मेघना शक्ति का अद्भुत संचार करने वाली किस्से कहानियाॅ, कहावतों का एक दौर गुजरे मुश्किल से तीन दशक बीते है। इतिहास गवाह है कि दादी और नानी जब अपने नौनिहाल को शाम को भोजन के बाद बिस्तर में लेकर लेटती थी तब विश्वास,आश्चर्य और समाधानकारक बाल मनोवृत्ति की कहानियां, किस्से,कहावतें बच्चों को संगीतात्मक लय में सुना कर उनके मन की एकाग्रता को अदभुत शक्ति से भर देती थी। खेल खेल में बच्चे लोककथाओं की इस मेघना को अपने चरित्र निर्माण में भी विकसित कर संसार के इस ज्ञान से परिचित हो जाया करते थे। इतना ही नहीं नानी-दादी के इन किस्से,कहावतों के साथ बच्चों में जहाॅ पशु पक्षियों की कहानियों से पशु-पक्षियों से प्रेम व पर्यावरण की शिक्षा ग्रहण की जाती वही, परियों एवं दानवों की कथाओं से जादू चमत्कारों से परिचित होते तो दूसरी ओर ऐतिहासिक किस्से कहानियों का ज्ञानवर्धन कराती तो पराक्रम भरी किस्से उन्हें पुरूषार्थी बनाते और उनमें समस्याओं को सुलझाने की सीख पहेलियों से मिलती रहीं है जो आज के इस संचार क्रांति के दौर में दूर तक देखने को नहीं मिलती है और इंटरनेट ने उन्हें समय के आगे का ज्ञान देकर उनके बचपन को प्रतिस्पर्धा की अग्नि में भस्म कर रखा है।
जब टेलिविजन नही था तब बरसात के दिनों में बच्चें घरों में घरोंदें का खेल खेलते जिसे कोई कोई घरूआ पतुआ भी कहता। जब बच्चे बिस्तर पर आराम करते तब घर के माता,पिता,बुआ आदि कोई को बुलाते और वे अपनी हथेली पर बच्चे का हाथ रखते तथा दूसरे हाथ से बच्चे के हाथ पर ताली बजाकर कहते – आटे बाॅटे दही चटाके,बरफूले बंगाली फूले, बाबा लाये तोरई, भूंजि खाये मोरईं। दूसरी कहावत बहुत प्रचलित रहीं जिसमें बिल्ली की चालाकी को लेकर कहा गया कि – काहू के मूॅड़ पै चिल मदरा,कौआ पादे तऊ न उड़ा,मैं पादू तो झट उड़ा। उस समय घर में बाॅस की पिंची और कपड़े के बीजना हुआ करते थे जिन्हें हाथ में लेकर बच्चे कहते थे-बाबा बाबा पंखा दे, पंखा है सरकार का, मैं भी हॅूं दरबार का, अच्छा एक लेलो। इससे हवा नहीं आती, अच्छा एक और लेलो। एक खेल में कई बच्चें गोलघेरे में खड़े होते और एक उनके बीच में खड़ा होता तब सब लड़के उसे पूछते- हरा समन्दर, गोपी चन्दर, मछली मछली कितना कितना पानी? गोलघेरे के भीतर वाला बालक अपने हाथों के पैरों के टखने तक लगाकर कहता, इत्ता इत्ता पानी। फिर दूसरा बालक पूछता,अब कित्ता पानी। बीच घेरे वाला बालक हर सवाल पर जबाव देता और अपनी चोटी तक पानी बताता, तब सभी दूर खड़े होकर घेरा बनाते और घेरे के अन्दर वाला उन्हें छूता, अगर कोई छुआ जाता तो उसे मछली बनकर ऐसे ही घेरे से बाहर निकलने का प्रयास करना होता और उस गोलघेरे को समुन्दर माना जाता। बच्चों को खुश करने के लिये उसकी हथेलियों पर अपनी हाथों की थपकी देकर घर की महिलायें गाती है – अटकन-बटकन, दही-चटाकन। बाबा लाये सात कटोरी,एक कटोरी फूटी,भैईया की किस्मत रूढ़ी। यह कहकर बच्चें की एक अंगुली पकड़कर कहती है कि यह छिंगुनी अंगुली चाचा की, दूसरी भैईया की, तीसरी माॅ की, चैथी कक्का की और पाॅचवे पर अंगूठा पकड़कर कहती है कि यह गाय का खूंटा। फिर अपनी दो उॅंगलिया बालक की बाॅह पर अपनी अंगुली के पोरों से चलाते हुए उसकी काॅख तक ले जाती है और कहती है कि-डुकरिया अपने बासन भाॅड़े उठाईले, मेरो बूढ़ो बैल पानी पीने आ रयो है। फिर आपई बच्चों को भरमाते हुये डुकरिया बनकर कहती है -ए पूत मेरौ चकला रह गयो, ए पूत मेरो बेलन रह गयो। और फिर बच्चें की काॅख तक अपनी अंगुली लेजाकर गुदगुदाती है और बालक खूब जोरों से खिलखिलाकर हॅसता रहता है जिसका आंनन्द और सुख से पूरा परिवार खुशी से झूम उठता है। एक खेल में बच्चों को बहलाने के लिये आसमान में चंदा मामा की ओर दिखाते हुए कहती है कि -चंदा मामा दूर के, पुये पकाये बूर के, आप खाएं थाली में मुन्ना के दे प्याली में, प्याली गई टूट, मुन्ना गया रूढ। बच्चा इस खेल में जहां खुले आसमान में चंदा को देखकर प्रसन्न होता है वही उसे प्रकृति को जानने-समझने का अवसर मिलता है जिसके अनुभव उसे प्रसन्नता देते है। एक खेल में बच्चों की चुहुलबाजी रोमाचिंत करती है जिसमें दो बच्चे खेलते है और एक दूसरे से पूछता है-काय बुढ़िया,काय ढूंढ रयी है। दूसरा बोलता है-सुई। फिर पहले वाला पूछता है सुई को काय करेगी?दूसरा जवाब देता है-कथरी सीऊॅगी। फिर कथरी का काय करेगी। जवाब-रूपया धरूॅगी। रूपईन का काय करेगी, भैस लूंगी। भैस का काय करेगी?दूध पीऊॅगी, दूसरा बालक तुरन्त जबाव देता है कि दूध के नाम मूत पीले और जो बालक बुढ़िया बना होता है वह जबाव सुनकर उसे मारने दौड़ता है।बुरे व्यक्ति की संगत से बचने के लिये एक छोटी की कहानी प्रचलित रही है जिसमें एक बिल्ली एक घर में मक्खन के मटके में अपना मुंह डालती है लेकिन जब निकालने की कोशिश की तो वह बहुत परेशान हुई और असफल रही। घबराहट में उसने मटका तोड़ दिया किन्तु मटके की किनारी/घाॅघरी उसकी गर्दन में पड़ी रह गयी। वह वहाॅ से भूखी ही चली गयी। रास्ते में उसे एक मुर्गा मिला उसने बिल्ली से पूछा मौसी कहाॅ जा रही हो, बिल्ली ने कहाॅ बेटा मैं भगवान की भक्त हो गयी हॅू और तीर्थ व्रज को जा रही हॅू। मुर्गे ने पूछा, तेरे गले में य क्या है? बिल्ली ने कहा, यह केदारनाथ भगवान का कंकन है , मुर्गे ने पूछा, क्या मैं भी चलू, बिल्ली ने कहा, बेटा तरी मर्जी, चल। मुर्गा बिल्ली के साथ हो गया, रास्ते में बिल्ली ने उस मुर्गे को खा लिया, तब से यह कहावत प्रचलित हुई कि बुरे का साथ बुरा होता है। ऐसे एक नहीं सैकड़ों उदाहरण मिलेगे जो स्थानीय भाषाओं,बोलियों में प्रचलित है जिनमें कई प्रकार के किस्से कहानियाॅ एवं कहावतें मौजूद है जिन्हें आज के दौर की पीढी पूरी तरह भूल गयी है। दादी-नानी के द्वारा बच्चों को जो वीर गाथायें, किस्से,कहानियाॅ,लोकोक्तिया एवं लोकभाषाओं की कहावतें सुनाई जाती थी वे उनके भविष्य निर्माण के साथ उन्हें प्रकृति की विशेषताओं, धरती की सभ्यताओं,समाज तथा धर्म प्रथाओं से जोड़े रखती थी वहीं हास्यास्पद चुटकुले,किस्से-कहावतें,गीत बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन के अलावा उन्हें संकटकाल में स्वयं को सुरक्षित रखने की सीख देकर इस परम्परा को जीवित रखे हुये थे जो अब शनेःशनेः समाज से विदा होने को है,जिसे बचाये रखने के विषय में हमारे प्रयास जारी रहे तो सदियों से नानी-दादी की इन धरोहरों को बचाया जा सकेगा। आत्माराम यादव पीव