भाजपा  के ख़िलाफ़ ‘विपक्षी एकता’ की चर्चा अचानक ग़ायब क्यों हो गई है ?

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भाजपा  के ख़िलाफ़ ‘विपक्षी एकता’ की चर्चा अचानक ग़ायब क्यों हो गई है ?

क्या आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल की शर्त ने इस एकता को बनने से पहले ही बिगाड़ दिया है? या विपक्षी दलों की अपनी समस्याओं ने इस एकता की संभावना को झटका दिया है? साल 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा  और नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई महीनों से कोशिश में लगे हुए हैं। पिछले महीने 23 जून को पटना में 15 विपक्षी दलों की मीटिंग इस लिहाज से एक बड़ी सफलता मानी जा रही थी।पटना की मीटिंग के बाद यह तय हुआ था कि 10 से 12 जुलाई के बीच शिमला में विपक्षी दलों की दूसरी मीटिंग होगी जिसमें राज्यों में लोकसभा सीटों के बंटवारे पर चर्चा की जाएगी।इस मीटिंग की ज़िम्मेवारी कांग्रेस पार्टी पर सौंपी गई थी। पहले से तय शिमला की यह मीटिंग रद्द हो चुकी है और अब यह मीटिंग 17 और 18 जुलाई को बेंगलुरु में होगी। इस बीच आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव ने भी दावा किया है कि बेंगलुरु में 17 दल एक साथ आ रहे हैं।लालू यादव ने कहा, “वो (भाजपा  को) जो कहना है, कहते रहें, वो नहीं चाहते हैं कि इस पर चर्चा हो क्योंकि वो जा रहे हैं।दरअसल विपक्षी एकता को लेकर चर्चा के बंद होने से ही विपक्षी एकता पर सवाल खड़े हुए हैं। हालांकि, इस सवाल की शुरुआत पटना की मीटिंग के बाद ही हो गई थी। उस वक़्त आम आदमी पार्टी ने बयान जारी कर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की थी।

देश की सत्ता हासिल करने के लिए होने वाले सियासी जंग में अब महज 10 महीने का ही वक्त बचा है। ऐसे में सत्ताधारी दल भाजपा  के साथ ही कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल भी अपनी-अपनी रणनीति बनाने और उसे वास्तविक आकार देने में जुटे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कद और भाजपा  की देशव्यापी ताकत को देखते हुए विपक्षी दलों के बीच एकजुटता का प्रयास भी जारी है।

इन सबके बीच अलग-अलग राज्यों में बीच-बीच में सियासी हलचल भी देखने को मिल रहा है। अभी महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा भूचाल आया हुआ है। पिछले कई महीनों से विपक्षी दलों को एकजुट करने में जुटे एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार को अपने भतीजे अजित पवार की बगावत के बाद खुद अपनी पार्टी को बचाने की जद्दोजहद से जूझना पड़ रहा है। उधर नौकरी के बदले जमीन केस में सीबीआई की ओर से तेजस्वी यादव को आरोपी बनाए जाने के बाद विपक्षी एकजुटता की मुहिम को धार देने में जुटे बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार और आरजेडी के बीच सबकुछ ठीक नहीं होने की अटकलें भी लगाई जाने लगी है। नीतीश कुमार और राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के बीच 3 जुलाई को हुई बैठक के बाद इन अटकलों को और हवा मिली है।

वहीं कांग्रेस की ओर से भी 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा  के खिलाफ विपक्षी दलों की लामबंदी को लेकर कोई ज्यादा सक्रियता नहीं दिख रही है। इस मसले पर आगे बढ़कर अलग-अलग विपक्षी दलों को भरोसे में लेने को लेकर कांग्रेस में गंभीरता का साफ अभाव झलक रहा है।

आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा  के खिलाफ एक मजबूत विपक्षी गठबंधन बने या न बने ।।ये तो भविष्य में तय होगा, लेकिन एक बात जरूर है कि चुनावी मुद्दों को लेकर कांग्रेस के साथ ही विपक्षी दलों के हाथ तंग नज़र आ रहे हैं। कोई भी चुनाव मुद्दों और उन मुद्दों के जरिए बने माहौल के आधार पर जीता जाता है। उसमें भी जब बात लोकसभा चुनाव की हो तो इस नजरिए से देशव्यापी चुनावी मुद्दों का महत्व बेहद बढ़ जाता है। ये वो बिन्दु है, जहां कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल फिलहाल भाजपा  से काफी पीछे नज़र आ रहे हैं। विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ वैसा चुनावी मुद्दा नहीं बना पा रहा है, जिसको हथियार बनाकर भाजपा  को मात दे सके और यही पहलू 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा  की सबसे बड़ी ताकत साबित होने वाला है।

ऐसा नहीं है कि विपक्षी दलों के लिए मुद्दों की कमी है, लेकिन उन मुद्दों को लेकर लगातार संघर्ष करने की क्षमता और उसे जनता के बीच पहुंचाने की रणनीति का अभाव जरूर विपक्षी दलों में दिखता है। भाजपा  मुद्दों को गढ़ने और जनता के बीच उनको पहुंचाने में विपक्ष से कोसों आगे नज़र आती है। ये शायद ही कोई भूला होगा कि 2014 लोकसभा चुनाव से पहले कैसे भाजपा  ने महंगाई और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया। इनको आधार बनाकर भाजपा  ने कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार 2014 के लोकसभा चुनाव में मात दी थी। भ्रष्टाचार और बढ़ती महंगाई के जरिए उस वक्त भाजपा  ने जो माहौल तैयार किया था, उस माहौल का बहुत बड़ा हाथ था, जिसकी वजह से  नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित कर 2014 में भाजपा  पहली बार अपनी बदौलत लोकसभा में बहुमत हासिल करने में कामयाब रही थी। उसके बाद भाजपा  की राजनीतिक किताब में लगातार नए-नए अध्याय जुड़ते गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ चुनावी मुद्दा और उसके जरिए माहौल बनाने में नाकामयाब रहा था, जिसके कारण उस चुनाव में भाजपा  को 2014 से भी बड़ी जीत हासिल हुई थी।

अब जब 2024 का लोकसभा चुनाव सामने है, तो उस नजरिए से भी न तो कांग्रेस और न ही कोई और विपक्षी दल महंगाई या फिर भ्रष्टाचार को ही लंबे वक्त के लिए जनता के बीच मुद्दा बनाने में कामयाब हो पा रहे हैं। मुद्दा बनाने के लिए जिस तरह का संघर्ष चाहिए, उसमें भी संजीदगी की कमी को महसूस किया जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि अब महंगाई और भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं रहा है। हम देख ही रहे हैं कि कैसे रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़े सामानों की कीमतों में आग लगी हुई है। पेट्रोल-डीजल के दामों को पिछले कुछ सालों में नई ही ऊंचाई मिली है। घर की रसोई के लिए आम आदमी को 8-9 साल पहले जितना खर्च करना पड़ता था, अब उसके लिए ही दोगुना से लेकर तिगुना खर्च करना पड़ रहा है, जबकि गरीब और मिडिल क्लास के लोगों के बीच प्रति व्यक्ति आय में उस रफ्तार से वृद्धि नहीं हुई है। भ्रष्टाचार भी अलग-अलग तरीकों और स्वरूप में मौजूद है।

कहने का मतलब है कि अभी भी महंगाई और भ्रष्टाचार है बहुत बड़ा मुद्दा, लेकिन राजनीतिक और मीडिया विमर्श में उसको ज्यादा समय और महत्व नहीं मिल पा रहा है। इसका एक बहुत बड़ा कारण है कि विपक्ष जनता तक इन मुद्दों को पहुंचाने में सफल नहीं हो पा रहा है और ऐसा करने के लिए लगातार संघर्ष करता नज़र भी नहीं आ रहा है। मुद्दों की कमी नहीं है। महंगाई, भ्रष्टाचार के अलावा बेरोजगारी का मुद्दा भी मौजूद है। आलम ये है कि जून के महीने में बेरोजगारी दर 8।45% तक पहुंच गया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के मुताबिक मई में ये आंकड़ा 7।68% था। ये तीसरी बार है जब इस साल बेरोजगारी दर 8% से ऊपर चली गई। शहरों के मुकाबले गांवों में बेरोजगारी दर ज्यादा देखी गई। गांवों में बेरोजगारी दर दो साल में सबसे अधिक देखी गई है। ये तो आंकड़े हैं, वास्तविकता में भारत में लोगों को बेरोजगारी का दंश इससे कहीं ज्यादा झेलना पड़ रहा है। पिछले कुछ सालों से बेरोजगारी के मोर्चे पर देश में भयावह स्थिति है, इस बात से शायद ही कोई भी आर्थिक मामलों का जानकार इनकार कर सकता है। ये ऐसा मुद्दा है, जिससे देश के गरीब और मिडिल क्लास के लोगों का सबसे ज्यादा सामना हो रहा है।

उसी तरह गरीबी, आर्थिक असमानता के तहत अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई, ग्रामीण से लेकर शहरी इलाकों में आम लोगों के लिए बेहतर चिकित्सा सुविधा का अभाव या फिर उसके लिए बड़ी राशि का बोझ, बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का लगातार महंगा होते जाना, धार्मिक आधार पर लोगों के बीच नफरत का बढ़ना।।ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिनसे देश के ज्यादातर नागरिकों का सामना अक्सर होते रहता है। हालांकि इनमें से कोई भी एक ऐसा मुद्दा नहीं है, जिसको लेकर कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों के नेता लगातार जनता के बीच संवाद करते रहे हों। अलग-अलग मुद्दों को भले ही चंद दिनों के लिए विपक्षी दल उठाकर नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने की कोशिश करते तो हैं, लेकिन उनको देशव्यापी चुनावी मुद्दा बनाने के लिए गांव-देहात से लेकर सड़कों पर विपक्ष का निरंतर संघर्ष या कहें महीनों तक चलने वाला संघर्ष नहीं दिखता है।

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, अडाणी समूह पर हिंडनबर्ग के खुलासे को लेकर जरूर पिछले कुछ महीनों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने का प्रयास करते रहे हैं। हालांकि ये एक ऐसा मुद्दा है, जिसको समझने के लिए अर्थशास्त्र और बाजार का गणित समझने की जरूरत पड़ती है। शायद यही वजह है कि ये मुद्दा उन लोगों के बीच देशव्यापी मुद्दा के तौर पर तब्दील नहीं हो पाया, जिनकी संख्या मतदान केंद्रों पर जाने की ज्यादा होती है। उसी तरह से विपक्षी दल सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का मुद्दा उठाते रहे हैं। इन दलों का ये भी आरोप रहा है कि केंद्रीय जांच एजेंसियों का भय दिखाकर भाजपा  विपक्षी दलों में तोड़-फोड़ की गतिविधियों को भी अंजाम देने का काम करती है। लेकिन ये मुद्दा भी आम लोगों के बीच उस तरह से हावी नहीं हो पाया है क्योंकि जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का मसला कोई नया नहीं है। जिस दल की भी केंद्र में सरकार रही है, उस पर इस तरह के आरोप लगते रहे हैं और देश की जनता के लिए ये कोई बहुत बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं रहा है। ऐसे भी जब नेताओं पर जांच एजेंसी की ओर से किसी भी तरह की कार्रवाई होती है, तो जिस तरह की अवधारणा पहले से बनी हुई है, उसके तहत आम लोगों में उन कार्रवाई को लेकर एक तरह का सकारात्मक रुख ही देखने को मिलता है।

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा  के पास एक और मुद्दा है, जिसकी काट खोजना विपक्ष के लिए नाकों चने चबाना जैसा साबित हो रहा है। भाजपा  के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा चेहरा है, जिससे पार्टी को पिछले दो लोकसभा चुनाव में भारी जीत हासिल हुई थी और 2024 में भी पार्टी इसे अपना सबसे मजबूत पक्ष मान रही है। वहीं न तो कांग्रेस और न ही विपक्षी गठबंधन की संभावनाओं को देखते हुए विपक्ष का कोई चेहरा अब तक सामने आया है। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों का जो रवैया है, उसको देखते हुए ये भी कहा जा सकता है कि चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष की ओर से  किसी सर्वमान्य चेहरे की घोषणा होने की संभावना का दूर-दूर तक आसार नहीं है।

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