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धर्म, गुण, अवगुण इत्यादि सभी यंत्र हैं। इन्हें टूल की भांति इस्तेमाल करने की योग्यता ही अध्यात्म है,साहित्यकार माधव कृष्ण

गाजीपुर। परमहंस बाबा गंगादास द्वारा सत्य न्याय धर्म की स्थापना के लिए लोगों को जागरूक और तैयार करने के लिए मानवता अभ्युदय महायज्ञ की व्यवस्था की गयी जो इस वर्ष अपने ४७वें वर्ष में प्रवेश किया। यह उस महान संत की २३वीं पुण्यतिथि भी है। इस महायज्ञ में प्रतिदिन श्रीरामचरित मानस का नवाह्न पारायण पाठ होता है। गंगा बाबा ने इसे मानव धर्म का नीति ग्रन्थ बनाकर स्थापित किया था क्योंकि इससे प्रत्येक मनुष्य जीवन के प्रत्येक संबंध और परिस्थिति में आदर्श व्यवहार सीख सकता है। इस यज्ञ में आने वाले सभी श्रद्धालु एक साथ बैठकर जलपान और भोजन करते हैं जिससे सामाजिक सौहार्द्र और प्रेम को बढ़ावा मिलता है, जातियों और धर्मों की संकीर्णता का नाश होता है।
संध्याकाल में मानव धर्म विषयक भजन संध्या और व्याख्यानमाला का ७ बजे से १० बजे तक आयोजन किया जाता है। सातवें दिन के सत्संग में साहित्यकार माधव कृष्ण ने विवेक चूड़ामणि पर बोलते हुए कहा कि, मन ईश्वर की विभूति है इसलिए मन को नियंत्रित करने की सोचना भी मूर्खता है। मनोनिग्रह का एकमात्र मार्ग है, यह जिस ईश्वर की विभूति है उसी ईश्वर में इसे लगा देना। इसी के अभ्यास की आवश्यकता है। अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोध:। उन सभी कर्मों का अभ्यास करना ही जिनसे मन ईश्वर में लगे, और उन सभी विषयोंसे वैराग्य लेना है जिनसे सांसारिकता हमें विकृत करे। तभी चित्त की वृत्तियों का निरोध होगा।
 उन्होंने कहा कि धर्म, गुण, अवगुण इत्यादि सभी यंत्र हैं। इन्हें टूल की भांति इस्तेमाल करने की योग्यता ही अध्यात्म है। जैसे दोषदृष्टि सभी मनुष्यों के अंदर विद्यमान है। जब यह दोषदृष्टि दूसरों की विकृत आलोचना में काम आती है तब यह मनुष्य के पतन का कारण बनती है। लेकिन जब यह दोषदृष्टि अपने अवगुणों को देखने के लिए प्रयुक्त होती है, तब यह हमारे आध्यात्मिक उत्थान का कारण बनती है। आदि शंकर कहते हैं कि दोष दृष्टि के द्वारा विषयों की क्षणभंगुरता और दोषों को देखकर उनसे किनारा कर लेना चाहिए और मन को अपनी नियतावस्था में रखना चाहिए। यह नियत अवस्था ही ब्रह्म है, और मन को वहां रखना ही शम कहा जाता है। शम मनुष्य के लिए एक महान संपत्ति है। इसी प्रकार दम भी एक संपत्ति है जिसमें आत्मनियंत्रण करते हुए दसों ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों को उनके केंद्र में रखना चाहिए, विषयों में नहीं। ऊपरी नामक संपत्ति का अधिकारी साधक किसी बाहरी चीज से प्रभावित होना बंद हो जाता है और वह कछुए की तरह खुद को बुराइयों से खींच लेता है।
बापूजी ने ज्ञानदीप पर बोलते हुए कहा कि, साधकों का आध्यात्मिक पतन दो कारणों से होता है: परनिंदा करने और सुनने से तथा साधना के अनुभवों को दूसरों के साथ साझा करने से। परनिंदा में आनंद लेने वालों का मन निर्मल नहीं हो सकता। निर्मल मन के बिना भगवान राम नहीं मिल सकते। मैला मन सात्त्विक श्रद्धा का उपयोग नहीं के सकता। परनिंदा परद्रोह की ओर ले जाती है और दूसरों से अकारण बैर रखने वाला मनुष्य दुर्योधन की तह सब कुछ खो देता है।
बापू जी ने कहा कि गंगा बाबा परोपकार को ही परम धर्म मानते थे इसलिए मानव धर्म के अनुयाई परहित के लिए गांव गांव और शहर शहर घूमकर स्थानीय न्याय के लिए प्रयास करते हैं। गंगा बाबा कहते थे कि सज्जन लोगों के लिए कचहरी नर्क बन चुकी है और गरीबों के लिए तो यह रौरव नरक है। इसलिए स्थानीय न्याय के द्वारा ऐसे सज्जनों और गरीबों को न्याय दिलाकर कचहरी से मुक्त के देने से ईश्वर की अनुकम्पा होती है।
सभा का समापन गुरु अर्चना, ईश्वर विनय और सार्वजनिक प्रसाद वितरण से हुआ। यह कार्यक्रम १७ अप्रैल तक चलेगा और १८ अप्रैल को दोपहर में इसकी पूर्णाहुति होगी जिसके उपलक्ष्य में एक विशाल भंडारा भी आयोजित किया जायेगा।

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