November 21, 2024

स्वस्थ पेशे की बीमार तस्वीर: एम्स में सांठगांठ से चल रहा दलाली का खेल, रेफर की आड़ में बेच रहे मरीज

गोरखपुर दवाओं का कमीशन एम्स में भी हर सरकारी अस्पताल की तरह ही है, लेकिन यहां पर नियम कायदे का पालन होता है। मसलन, अन्य सरकारी अस्पतालों में पसंदीदा कंपनी की दवा लिखी जाती है, लेकिन यहां पर ऐसा नहीं होता। यहां पर नियमानुसार दवा के साल्ट का नाम लिखा है ताकि कोई भी जांच हो तो नियम में सही मिले।

वैसे तो एम्स में डॉक्टर बाहर से आए हैं, लेकिन उन्हें भी यहां के दलालों ने चंगुल में ले लिया है। जिला अस्पताल, मेडिकल कॉलेज में मरीजों को ठगने की दुकान चलाने वाले मरीज माफिया ने अब एम्स में भी पैठ बना ली है। गेट के इर्द-गिर्द घूमने वाले दलालों की पैठ इतनी जबरदस्त है कि नंबर लगाने से लेकर डॉक्टर के लिखे पर्चे की दवा दिलाने तक का ठेका ले लेते हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि इस नेटवर्क में शामिल डॉक्टर बहुत सावधानी भी बरत रहे हैं, ताकि पकड़ में न आ सकें। ऑपरेशन के लिए सर्जिकल उपकरण खरीदवाने के लिए दलाल के नंबर लिखकर नहीं, बल्कि मौखिक बताते हैं।

मरीज अगर दलाल से फोन पर डॉक्टर का नाम ले लेता है तो फोन कट कर दिया जाता है और उधर से काॅल कर बाहर मिलने के लिए बुलाया जाता है। उपकरण सीधे ऑपरेशन थिएटर में पहुंचते हैं, कहां और किस दुकान से आया है, यह खरीदने वाले को भी पता नहीं होता है। रुपयों का भुगतान ऑपरेशन थिएटर में जाने के बाद करना होता है, उस समय आप मना भी नहीं कर सकते।

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जिला अस्पताल, बीआरडी मेडिकल कॉलेज जैसे नाम से उच्च संस्थान हैं, वैसे ही यहां पर दलालों का नेटवर्क भी हाईप्राेफाइल है। अन्य सरकारी अस्पतालों में दवा, जांच और उपकरण के लिए पर्ची पकड़ाई जाती है, एंबुलेंस मरीज को लेने आती है, लेकिन यहां पर ऐसा कोई काम नहीं होता। बस समानता एक बात की है, जिला अस्पताल से मेडिकल और मेडिकल से लखनऊ रेफर करने के बीच मरीज बिकते हैं तो एम्स से मरीज को मेडिकल रेफर करने के बीच बेचा जा रहा है।

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सस्ते इलाज की चाह में आने वाले मरीजों को जब रेफर किया जाता है तो उन्हें प्राइवेट अस्पताल का पता भी बता दिया जाता है। इस धंधे में एक बार हवालात तक पहुंचे युवक ने नाम न छापने के शर्त पर बताया कि मरीज जैसे ही प्राइवेट अस्पताल के लिए हामी भरता है, उसे बाहर से टैक्सी से जाने की सलाह दी जाती है, ताकि एम्स प्रशासन न फंसने पाए। बुधवार को सिकरीगंज के मरीज के साथ भी ऐसा ही हुआ है, वह ऑटो से नर्सिंग होम गए थे।

दवाओं का कमीशन एम्स में भी हर सरकारी अस्पताल की तरह ही है, लेकिन यहां पर नियम कायदे का पालन होता है। मसलन, अन्य सरकारी अस्पतालों में पसंदीदा कंपनी की दवा लिखी जाती है, लेकिन यहां पर ऐसा नहीं होता। यहां पर नियमानुसार दवा के साल्ट का नाम लिखा है ताकि कोई भी जांच हो तो नियम में सही मिले। लेकिन साल्ट की सस्ती दवाएं जिस अमृत फार्मेसी (एम्स परिसर के अंदर) मिलनी चाहिए, वहां पर होती ही नहीं हैं। फिर मजबूरन मरीजों को बाहर खहीदने जाना ही होता है। अब सवाल उठता है कि जब अंदर फार्मेसी है तो ये दवाएं वहां पर क्यों नहीं रखी जातीं।

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