November 24, 2024
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बेंगलुरु में विपक्षी जुटान देख मोदी और बीजेपी विरोधी खेमे का उत्साह बढ़ना स्वाभाविक है। मोदी विरोधी राजनीति और मीडिया के हलके में उत्साह का यह प्याला लबालब छलक रहा है। लेकिन क्या इस जुटान ने सचमुच मोदी विरोधियों को उत्साहित होने का मौका दे दिया है? क्या बेंगलुरु की जुटान ने सचमुच देश को यह संदेश दिया है कि एनडीए को धूल चटाने के लिए इंडिया भरोसामंद औजार साबित होगा? लेकिन इस जुटान में अभी से ही जिस तरह का बिखराव दिखने लगा है, उससे लगता नहीं कि चुनाव आते-आते तक यह खेमा मजबूती के साथ केंद्र की मौजूदा सरकार को चुनावी मैदान में चुनौती दे पाएगा।

 जिसकी तारीख पहले टली और आखिरकार जून महीने के आखिर में हुई। इस बैठक में शामिल होने को लेकर जिस तरह कांग्रेस ने रुख दिखाया, नीतीश कुमार और उनके रणनीतिकारों को चेत जाना चाहिए था। चाहे नीतीश हों या लालू या फिर अखिलेश, समाजवादियों की राजनीति की जिस वैचारिक खेमेबंदी पर टिकी है, उसकी बुनियाद में कांग्रेस विरोध ही है। लालू यादव इसके अपवाद हैं। क्योंकि पिछली सदी के नब्बे के दशक में जनता दल से अलग होकर उन्होंने जब अपनी अलग पार्टी बनाई, कमोबेश तब से वे कांग्रेस के साथी हैं। कभी वे कांग्रेस के रहमोकरम पर होते हैं तो कभी बिहार में कांग्रेस उनके रहमोकरम का मोहताज होती रही है। इसलिए यह माना जा सकता है कि लालू और उनके बेटे तेजस्वी का कांग्रेस की गुगली का अंदाज रहा होगा। लेकिन नीतीश कांग्रेस की इस गुगली को क्यों नहीं भांप पाए? हैरत की बात यही है। पहले पटना के जुटान में कांग्रेस ने जिस तरह शामिल होने को लेकर हीलाहवाली की, उससे उपजे संदेश के एक-एक अक्षर को राजनीतिक समीक्षक समझ रहे थे। उन्हें पता था कि कांग्रेस विपक्षी जुटान में जाकर अपने से छोटे दलों की परिक्रमा करती नजर नहीं आना चाहती। विपक्षी जुटान में वह खुद को ग्रहमंडल के सूर्य की तरह केंद्र में रखना चाहती है और उसकी चाहत बाकी दलों को उसके इर्द-गिर्द ग्रहों की तरह परिक्रमाशील बनाने की है। बेंगलुरु में जिस तरह खुद को फोकस में रखने में वह कामयाब हुई है, उससे साफ है कि उसने साफ संकेत दे दिया है कि विपक्षी जुटान का वही

प्रमुख चेहरा होगी।

विपक्षी खेमों को साथ लाने की जितनी कोशिश नीतीश ने की है, उतनी मौजूदा दौर में किसी ने नहीं की है। इस जुटान में शामिल वामपंथी दलों को छोड़ दें, जिनकी वैचारिक बुनियाद की मजबूरी मोदी विरोध है, उन सब की मजबूरी इस गठबंधन में शामिल होना है। इसलिए सबने नीतीश कुमार के अभियान का साथ दिया। वैसे पटना में बैठक का विचार उस ममता ने दिया था, जो एनडीए में रहते वक्त नीतीश कुमार और उनकी तत्कालीन समता पार्टी को बर्दाश्त नहीं कर पाती थीं। पटना में बैठक के सुझाव के पीछे ममता की मंशा थी कि विपक्षी खेमेबंदी का श्रेय और नेतृत्व कांग्रेस हासिल न कर ले। पहली बैठक के बाद लगने लगा था कि नीतीश और ममता की सोच के हिसाब से ही विपक्षी खेमेबंदी आगे बढ़ रही है। लेकिन बेंगलुरु में कांग्रेस ने पासा पलट दिया। कांग्रेस की अघोषित नंबर वन सोनिया गांधी, कांग्रेस के अघोषित नंबर दो राहुल गांधी, कांग्रेस की अघोषित नंबर तीन प्रियंका वाड्रा और कांग्रेस के घोषित नंबर वन उसके अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की उपस्थिति में कांग्रेस ने पूरा नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया।

नीतीश और उनके सलाहकारों को उम्मीद थी कि बेंगलुरु बैठक के बाद उन्हें ठीक वैसे ही विपक्षी खेमेबंदी का संयोजक स्वीकार कर लिया जाएगा, जिस तरह अतीत में उनके नेता जॉर्ज फर्नांडिस को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का संयोजक स्वीकार किया गया था। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि तब गैर कांग्रेसी और गैर भाजपा दलों से संपर्क की जिम्मेदारी जॉर्ज निभाते थे। शायद नीतीश ने भी वैसी ही भूमिका सोच रखी थी। वैसे उन्हें लगता था कि जिस तरह उन्होंने मोदी विरोध में अपने सुर तेज किए हैं, उससे विपक्षी खेमा आने वाले दिनों में उन्हें अपना नेता मान लेगा। ऐसा सोचते वक्त वह कांग्रेस को कमजोर आंक गए। नतीजा सामने है, बेंगलुरु में उन्हें संयोजक बनाना तो दूर, उनकी पूछ भी कमजोर हो गई। नीतीश पर निगाह रखने वाले जानते हैं कि वे अपना गुस्सा छिपा नहीं पाते। बेंगलुरु की प्रेस कांफ्रेंस में भाग ना लेना और वहां से चुपचाप पटना के लिए निकल जाना तवज्जो ना मिलने से उपजे नीतीश के क्षोभ की ही कहानी कह रहा है।

वैसे नीतीश को पटना की बैठक के दौरान हुए लालू-राहुल गांधी संवाद को याद कर लेना चाहिए था। लालू की छवि हंसोड़ और मजाकिया की है। उन्होंने तब राहुल से दूल्हा बनने को कहा था। सामान्य रूप से इसे मजाक में लिया गया। लेकिन लालू ने एक तरह से कांग्रेस को संकेत दिया था कि कांग्रेस अगुआई करे। वह उनके साथ हैं। वैसे लालू पर कांग्रेस का गहरा अहसान है। साल 2000 में राबड़ी सरकार को बर्खास्त करके नीतीश को शपथ दिला दी गई थी। लेकिन राज्यसभा में तत्कालीन एनडीए सरकार का बहुमत नहीं था। कांग्रेस अपने रुख से टस से मस नहीं हुई। लिहाजा नीतीश को इस्तीफा देना पड़ा था और लालू की सरकार बहाल हो गई थी। पता नहीं, नीतीश को यह संदर्भ लालू के बयान के वक्त याद रहा या नहीं। लेकिन बेंगलुरु में जिस तरह कांग्रेस ने किया है, उससे साफ है कि कांग्रेस ने लालू के सुझाव को गहराई से समझा। यह सुझाव वैसा ही रहा, जैसा वह चाहती थी।

साल 1998 के बाद से लेकर अब तक नीतीश की पूरी राजनीति कांग्रेस विरोध की बुनियाद पर भाजपा के साथ पली-बढ़ी है। साल 2005 और 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में नीतीश की पार्टी बड़े भाई की भूमिका में रही, लेकिन बाद के दिनों में उसका आधार छीजता चला गया। इसके बावजूद भाजपा ने उन्हें अपनी बारात का दूल्हा बनाए रखा। बीच के कुछ साल अपवाद के कहे जा सकते हैं, जब उन्होंने भाजपा का दामन छोड़ कांग्रेस के हाथ में लालू की लालटेन पकड़ खुद के लिए रोशनी तलाशी। पहली बार जब उन्होंने लालटेन की रोशनी को अपने साथ लिया, तब तक वह रोशनी पीली पड़ने लगी थी। तब लालू को भी अपने राजनीतिक वजूद के लिए नीतीश का साथ जरूरी लगा। चतुर खिलाड़ी की तरह उन्होंने जनता दल यू की तीर को थाम लिया। इसका नतीजा 2015 के चुनावों में दिखा। जो लालू कमजोर हो रहे थे, विराट बनकर उभरे।

अब अगली जुटान मुंबई में होनी है। शरद पवार की जैसी राजनीतिक फितरत रही है, उसमें अब वे भी अपनी तरह से खेल दिखाएंगे। उस खेल में हो सकता है कि अपनी वरिष्ठता का हवाला देते हुए वे खुद को संयोजक बनवा ले जाएं, ताकि भावी सत्ता पर उनकी पकड़ बनी रहे। इसके लिए हो सकता है कि वे गठबंधन के नेतृत्व के लिए राहुल के नाम का प्रस्ताव भी कर दें। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा घाटा नीतीश को होनी है। वैसे भी हाल के कुछ वर्षों में जिस तरह की सियासी उछलकूद उन्होंने की है, उससे उनकी साख कमजोर तो हुई ही है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस उनकी बजाय खुद को आगे रखने में कामयाब हो गई और उनकी ही वजह से साथ आए विपक्षी दलों को कुछ भी नागवार नहीं लग रहा है। वैसे कांग्रेस की तात्कालिक सियासी सेहत के लिए उसका दांव भले ही अच्छा हो, लेकिन अब ममता भी चेतेंगी, दूसरे छोटे दल भी सचेत होंगे। उनके मन शायद ही मिल पाएं। आखिरकार यह भाजपा के लिए ही मुफीद होगा।

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