हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यक:
एक सड़क है। नाम अन्नापूर्णा मार्ग है। उसके इस पार हमारे मित्र का दावत कार्यक्रम चल रहा था। दावत कुछ के लिए अवसर तो कुछ के लिए मजबूरी होती है। भोजन का समय हुआ। आप-पास सजी हुई सलाद की प्लेटें एवं चम्मचें….एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट व्यंजन और उनके पीछे खड़े हुए खानसामे। सभी भोजन करने में व्यस्त थे। तभी पंडाल में एक पागल घुस आया और एक खानसामे के पास खड़ा होकर कहने लगा- “ ऐ…. भैया खाने को कुछ दे दो…., हमें भी कुछ खाने को दे दो….तीन दिन से भूखा हूँ….’ “चल हट भाग यहाँ से।” खानसामे ने कहा। थोड़ा-सा दे दो…बहुत भूख लगी है। ‘ पागल गिड़गिड़ाया।
तभी कार्यक्रम के आयोजकों की निगाह उस पर पड़ गई। वे उसे पकड़ने दौड़े। पागल इधर-उधर भागने लगा। भागते समय उसकी निगाह पूड़ियों पर पड़ गई। उसने लपककर कुछ पूड़ियाँ उठा लीं। तभी आयोजकों ने उसे पकड़ लिया और उसकी तबियत से पिटाई की। उससे पूड़ियाँ छीनकर पंडाल में रखे कूड़ेदान के हवाले कर दिया गया। सहमा हुआ पागल मारे डर के पंडाल से बाहर भागने लगा। इसी भाग-दौड़ में किसी-किसी के कपड़े खराब हो गए, किसी के खाने की प्लेट गिर गई।
एक ने कहा – ‘कहाँ-कहाँ के पागल आ जाते हैं। “
दूसरे ने कहा – “बिल्कुल पागल था।’ आयोजकों को अच्छी व्यवस्था रखनी चाहिए थी।”
तीसरे ने कहा – ‘पूरा मूड ऑफ कर दिया।”
एक रसूखदार महिला ने कहा – “ओह नो! मेरी तो साड़ी का सत्यानाश कर दिया, इसे ड्राईक्लीनिंग में देना होगा।”
मैंने भी अपनी प्रतिक्रिया दी – “बेचारा….।”
थोड़ी देर में सभी लोग इस किस्से को भुलाते हुए दावत छकने लगे।
उधर सड़क के उस पार दूर खड़ा पागल बुरी तरह भूख और मार की पीड़ा से कराह रहा था।