बाहरी चुनौतियों से पार पाने के लिए पारिवारिक ऊर्जा और चेतना ही हमें संबल दे सकती
भटकने को तो कहीं भी भटक लो, लेकिन भटकते-भटकते एक समय ऐसा भी आता है कि जब घर की याद सताने लगती है। जितना सुकून हमें अपने घर में मिलता है, बाहरी दुनिया में नहीं मिलता। लेकिन हमारे जीवन क्रम में अनेक अवसरों पर ऐसे योग-संयोग बन जाते हैं कि हमें बाहरी दुनिया से रूबरू होने का अवसर मिल जाता है। अजनबी जगह जाने पर कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हम अपनी जरूरतों के लिए अन्य लोगों पर निर्भर रहते हैं। यह बड़ी अजीब बात है कि रोजमर्रा की जीवनशैली से भी हम कभी न कभी उकता जाते हैं। बोलचाल की भाषा में कहें तो हवा बदलने की तलब लगने लगती है। विचार आता है कि कहीं तीर्थाटन चलें या कहीं पर्यटन पर पर्यटन वैसे भी ज्ञान का एक खास स्रोत है और इससे कौन समृद्ध नहीं हुआ है!कभी-कभी देश की सीमा से पार जाकर दुनिया देखने की हूक भी उठती है, जिसके चलते गाढ़े परिश्रम से अर्जित धन को खर्च करने में भी हम हिचकते नहीं नए परिवेश में जाकर हमें अपनी सामान्य दिनचर्या में कुछ आवश्यक तब्दीलियां भीकरनी पड़ती हैं। आखिरकार नए लोग और नई दिनचर्या तथा जीवनशैली के प्रति हमारा आकर्षण चाहे कितना भी प्रबल हो, लेकिन रह-रहकर घर की याद सताने लगती है और हम एक निश्चित अंतराल से अपने घर की ओर लौट जाते हैं। हर एक छोटी-बड़ी यात्रा हमें अपने जीवन में नई सीख देती है। नए-नए लोगों से मिलना, उनके रहन-सहन और खानपान के साथ-साथ आचार-विचार और व्यवहार का अध्ययन करना हमें बहुत कुछ सिखा देता है।हर किसी की अपनी घर की दुनिया होती है, जिस पर सभी लोग गर्वित होते हैं। वहां भांति-भांति के रिश्तों की डोर से हम बंधे होते हैं। लेकिन यह बंधन हमें निरंतर नई ऊर्जा और प्रेरणा से सराबोर रखता है। परिवार में हम अलग-अलग संबोधन से जाने जाते हैं। हर एक संबोधन की गरिमा का हमें विशेष खयाल रखना होता है। आमतौर पर हम रखते ही हैं। परिवार के किसी सदस्य की छोटी से छोटी उपलब्धि पर भी हम प्रसन्नता से भर जाते हैं। सदस्य विशेष के विकट दौर में हम गहरे अवसाद में डूब जाते हैं। परस्पर एक दूजे का दर्द समझते हुए उसे दूर करने का हर संभव प्रयास भी किया करते हैं। हम अपने परिवार के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वहन विशुद्ध रूप से कर्तव्य भाव से ही करते हैं।जब हम अपने कर्तव्यों का भलीभांति पालन कर चुके होते हैं, तब अंतर्मन में असीम संतुष्टि का बोध होने लगता है। परिवार से मिली ऊर्जा हमें थकने नहीं देती। इन तमाम संदर्भों में यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि परिजनों में परस्पर वैचारिक सामंजस्य स्थापित करने की दिशा में हम निरंतर प्रयत्नशील रहें। बहुत स्वाभाविक है कि हर एक सदस्य की अपनी अलग विशिष्ट विचारधारा हो सकती है। सबकी अपनी- अपनी भूमिका होती है या फिर वक्त के साथ वे नई भूमिकाएं चुनते हैं। किसी भी विषय को अपनी बुद्धि और विवेक के आधार पर अलग-अलग नजरिए से देखा जाना भी बहुत स्वाभाविक होता है। ऐसे में परिवार के तमाम सदस्य एक-दूसरे की भावनाओं का खयाल रखते हुए वैचारिक मतभेद के बावजूद परस्पर एकजुट रहने का प्रयास करें, तो बहुत बेहतर हो।यों भी अनेकता में एकता का ताना-बाना हमारी मूलभूत संस्कृति से जुड़ा हुआ है। इस नाते परिवार में सुख-शांति और सुकून का वातावरण निर्मित करने में हमारी अपनी सहभागिता होनी चाहिए। अन्यथा अनेक अवसरों पर देखा गया है कि परस्पर सामंजस्य के अभाव में अलग-अलग रिश्तों में अलग-अलग तरह की दरारें उत्पन्न हो जाती हैं। दरअसल, हमें इस संदर्भ में संयुक्त परिवार के आचरण और व्यवहार को दृष्टिगत रखना होगा। ऐसा करने पर ही हम अपने सुखी समृद्ध परिवार की परिकल्पनाओं को साकार सिद्ध कर सकते हैं। यह सब इसलिए भी अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि सारे जहां में सारे जहां की खुशियां हमें अपने घर परिवार से ही मिला करती हैं। दरअसल, अपना घर परिवार ही हमें अपने अंतर्मन में असीम आनंद की दिव्य अनुभूति करा सकता है अन्यथा व्यवहार में यह भी देखा गया है कि तमाम भौतिक सुख समृद्धि के बावजूद परिवार के सदस्यों में सामंजस्य के अभाव के चलते मन का सुकून कोसों दूर जा चुका हो। इसलिए यह जरूरी है। कि जीवन का वास्तविक आनंद प्राप्त करने के निमित्त हम अपने घर परिवार में परस्पर सौहार्दपूर्ण संबंधों का ऐसा ताना-बाना बुनें, ताकि हर पल प्रसन्न रह सकें। अन्यथा बाहरी दुनिया की तमाम चुनौतियों से जूझते- जूझते हम कहीं टूट न जाएं। अगर कभी ऐसा होता है तो फिर इस दुर्लभ मानव भाव की महत्ता को तो हम कभी अनुभव ही नहीं कर सकेंगे। बाहरी चुनौतियों से पार पाने के लिए पारिवारिक ऊर्जा और चेतना ही हमें संबल दे सकती है।