“भैया जी! पिछली बार एक वोट के लिए आप दो हजार दिए थे। अब महंगाई बढ़ गई है। खर्च भी बढ़ गए हैं। और तो और कंपटीशन भी बढ़ गया है। अपने प्रतिद्वंदी पिछली बार एक वोट का तीन हज़ार दिए थे ऐसा सुनने में आया है। अब यह भी सुनने में आ रहा है कि इस बार वह छे हजार प्रति वोट देने की बात भी कर रहे हैं। ऐसे में आपको अपने वोट का रेट बढाना ही होगा। दो-तीन हजार में आजकल काम चलता कहां है? उसको आप पूरे पांच हजार कर लो और मान लो तो हम इस पर बात करते हैं।”
“अचानक रेट इतना बढ़ा दोगे तो कैसे चलेगा? हमको भी तो देखना होता है। इतना पैसा कहां से लायेंगे?”
“आपको पैसों की क्या कमी है भैया! अगर आप चाहे तो कुबेर को भी लोन दे सकते हैं। सोचिए इन पांच सालों में आपने कितना कुछ हासिल कर लिया है! कितना कुछ कमा लिया है! कितनी संपत्ति बना ली है। यह सब कैसे हुआ? हमारे वोट के बदौलत ही तो!”
“वह सब तो ठीक है! अच्छा मैं बात करता हूं। थोड़ा सोचने दो मुझे। लेकिन इसके बाद कोई और डिमांड नहीं होनी चाहिए हमको जिताने के लिए।”
“आप भी किस जमाने में हो भैया? उम्मीदवारी कंफर्म होते ही सबको यानी हम सब वोटरों को दावत देनी होगी बड़े पैमाने पर ताकि आप को दिखा सकें और अपनी बात मनवा सकें। उसमें दावत के बाद सभी को अच्छे अच्छे उपहार भी देने होंगे।”
“मतलब लुटा दें अपनी सारी कमाई?”
“जितना खर्चते हो, उससे हजार गुना तो हासिल हो जाता है इन पांच सालों में। कोई नई बात है का?”
“ठीक है! मैं इसलिए माने ले रहा हूं कि तुमने पिछली बार मुझे अपने पांच हजार वोटों से जितवाया था।”
“एक और बात मेरे साले साहब को सरकारी नौकरी, मेरी साली साहिबा को सरकारी राशन दुकान और मेरी पत्नी को सरकारी स्कूल में नौकरी दिलाना होगा।”
“मरवाओगे तुम मुझे। तुम्हारी मांगें तो बढ़ती ही जा रही हैं। इतना सब कैसे होगा भाई?”
“यह मेरा पर्सनल डिमांड है। इस बार तो साढ़े पांच हजार वोट मेरे पास हैं भैया जी। अब इतना तो मेरा हक बनता है न?”
“देखेंगे। कुछ करते हैं।”
” देखना दिखाना नहीं। बस करना है मतलब करना है।”
“ठीक है, दिला देंगे।”
“जनता को देने वाले आश्वासन मुझे मत दीजिए। चुनाव के पहले यह सब हो जाना चाहिए तभी…”
“तुम तो सीधे ब्लैकमेल कर रहे हो। ठीक है। चुनाव से पंद्रह दिन पहले यह सब कर दूंगा।”
“यह हुई न बात! बाहर अपने साथियों से कह दूं कि मामला फिट है और हम आपके साथ हैं।”
भैया जी कुछ कहने वाले थे कि उनका मोबाइल बज उठा। वे फोन उठाकर बात करते करते अचानक सोफे पर लुढ़क गए गश खाकर।
“क्या हुआ भैया जी?”
“इस बार मुझे आला कमान ने चुनाव का टिकट नहीं दिया रे।” और वे चुप हो गए।
“चलो साथियों ! अब ये किसी काम के नहीं।” कहते हुए सारे बाहर चल पड़े। भैया जी अकेले सोफे पर पड़े पड़े सामने लगे पिछले चुनाव के बैनर पर “लोकतंत्र की मूल्यों की रक्षा और गरीबों की सामाजिक सुरक्षा के लिए भैया जी को बहुमत से विजयी बनाएं” पढ़ते पढ़ते नजर फेर लिए।