मूल्यहीन राजनीति राष्ट्रनिर्माण में बाधक।
राजनीतिक दलों, उनके नेताओं में निरन्तर विचारधारा का अवमूल्यन हो रहा है। बढ़ती सिंद्धान्तों, आदर्शों की कमी गहरी चिंता का विषय हैं। देश के राजनीतिक दलों इन दलों के नेताओं और संगठनों की विचारधारा देश के आमजन की विचारधारा का निर्माण करती है। इन्हीं राजनीतिक दलों के नेताओं के राजनीतिक मंचों से दिए भाषणों से आमआदमी अपनी धारणा का निर्माण करता है। अपनी राय कायम करती है। यही आमआदमी अपने कार्यो और राजनीतिक विचारों से संचालित होकर राष्ट्रनिर्माण में अपना योगदान देता है। किंतु बड़े दुख का विषय है की राजनीतिक दलों में मूल्यहीनता बढ गयी है। आदर्श और विचारधारा मंच से दिए जाने वाले आकर्षक जुमलों के सिवा कुछ नहीं रह गए है। राजनीतिक सिद्धान्त शोकेस में सजी प्रदर्शन की वस्तु बन गए है। राजनीति में सिंद्धान्तों के क्षरण विचारधारा की गिरावट का एक नमूना देश के महाराष्ट्र प्रदेश में देखने को मिल रहा है। इस प्रदेश में सत्ता ही सिद्धान्त हैं,सरकार ही विचारधारा है। यहां की राजनीतिक परिस्थितियां देखकर सियासत और नेताओं के बारे में कही गयी पूर्व प्रचलित कहावत जैसे बदल सी गयी है। ‘हमाम में सब नंगे’ अब ‘सियासत में सब नंगे’ हो गयी लगती है। सफेद वस्त्रों में लिपटे ये नामी नेता विचारधारा का ढिंढोरा पीटते है, सिंद्धान्तों की दुहाई देते, राष्ट्र निर्माण की बात करते है। किन्तु सच तो यह है कि विचारधारा और सिंद्धान्तों से विहीन यह नेता वस्त्रों में भी नंगे नजर आने लगे है। अचंभा तब होता हैं तब देश के प्रधान मध्यप्रदेश के शहडोल में सिकलसेल एनीमिया नामक बीमारी को जड़ से खत्म करने का संकल्प दोहरा रहे थै। इसी मंच से विपक्ष पर आरोप लगा रहे थै की भष्ट्राचार के दलदल में डूबा विपक्ष एकजुटता की कोशिश कर रहा है। जो खुद को एक नहीं रख सकता देश को एक कैसे रखेगा। प्रधानमंत्री ने विपक्षी नेताओं और सियासी दलों को भष्ट्र आचरण में संलिप्त बताया। प्रधानमंत्री के इन उदबोधन के बाद लगा जैसे भष्ट्राचार में डूबे दलों उनके नेताओ पर सख्त कार्यवाहीं होगी। किन्तु यह क्या..? देश के प्रधानमंत्री का देश की सेहत सुधारने के उद्देश्य से दिया गया भाषण देश की जनता सुन ही रही थी। तभी महाराष्ट्र राज्य की सरकार में अचानक घटित घटनाक्रम में अजित पंवार, छगन भुजबल, दिलीप वालसे पाटिल, हसन मुशरिफ, अनिल पाटिल, अदिति तटकरे, धनंजय मुंडे, धर्मराव आत्राम, संजय बनसोडे ने महाराष्ट्र राज्य की सरकार में जहां शिवसेना शिंदे गुट और भाजपा की सरकार है, मंत्री पद की शपथ ग्रहण की, एनसीपी का महाराष्ट्र की सरकार में शामिल होना देश के आमनागरिकों को मध्यप्रदेश के शहडोल में देश के प्रधान द्वारा दिये गए भाषण से बिल्कुल उलट लगा। ऐसा लगा केंद्रीय नैतृत्व का देवेंद्र फडणवीस और भाजपा के समर्थन से चल रहीं महाराष्ट्र सरकार पर नियंत्रण नही है ? यह क्या एनसीपी के जिन नेताओं को दागी बता रहे थै। जो भष्ट्र आचरण वाले नेता माने जा रहे थै। महाराष्ट्र सरकार में मंत्री पद की शपथ लेने वाले अधिकांश एनसीपी नेताओं के खिलाफ जांच एजेंसियां जांच कर रही है। तो क्या भाजपा की वाशिंग मशीन में धुलकर यह ईमानदार हो गए है। अगर नहीं हुए तो भाजपानीत महाराष्ट्र सरकार में मंत्री कैसे बन गए ? यह सही है देश की सत्ता पर भाजपा का शासन है। काँग्रेस की कमजोर होती विचारधारा से ऊबकर जनता ने भाजपा की राष्ट्रीय हित और जनहित की विचारधारा को शिरोधार्य किया, किन्तु विपक्ष के भष्ट्र नेताओं पर भष्ट्राचार का आरोप लगाने वाली भाजपा अपने सहयोग से चलने वाली सरकार में इन नेताओं को कैसे स्थान दे सकती है? वर्तमान दौर की राजनीति में धनबल, बाहुबल ओर सत्ता लोलुपता साफ दिखाई देती है। ऐसा नहीं है की विचारहीनता किसी एक दल में ही दिखाई दे रही है। इसका प्रदर्शन पहले भी हुआ है। दलों को तोड़ना, सरकारों को गिराना, निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त करना यह देश मे सभी दलों ने किया है। देश यह भी जानता है कि अब कौन इस खेल का माहिर खिलाड़ी है। इस दौर के सारे राजनीतिक दल विचारहीनता ओर सिद्धान्तविहीनता की बीमारी से पीड़ित नजर आ रहे है। प्रधानमंत्री द्वारा मध्यप्रदेश के शहडोल से विपक्ष पर की गई टिप्पणी को सही माना जा सकता है। यह तब सम्भव दिखाई देगा तब एनसीपी के भष्ट्र आचरण वाले नेताओं पर प्रचलित कार्यवाहियां महाराष्ट्र सरकार में रहते हुए की जाए। महाराष्ट्र में विचार हीनता की बीमारी लगभग सभी दलों में व्याप्त है। वर्ष 2019 के चुनाव में भाजपा-शिवसेना को महाराष्ट्र की सरकार का जनादेश मिला था। अपने सिंद्धान्तों से अलग जाकर भाजपा का साथ शिवसेना ने छोड़ा। एनसीपी, कांग्रेस के साथ सरकार बनाने का प्रयास किया तभी सारे देश को यह याद है कि सुबह 4 बजे महाराष्ट्र के राजभवन में देवेंद्र फडणवीस सरकार में अजित पंवार एनसीपी को उपमुख्यमंत्री बनाकर रातों-रात बेमेल सरकार बनाए जाने का खेल खेला गया था, एनसीपी के साथ सरकार बनाने का यह भाजपा का प्रयास था। इसे तब एनसीपी के वरिष्ठ नेता शरद पंवार ने नाकाम कर दिया था। परिणाम स्वरूप अजित पंवार के इस्तीफे के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को भी अपना इस्तीफा सौपना पड़ा। इसके बाद शिवसेना जिसकी विचारधारा ही कट्टर हिंदूवाद की रही है। अपने पुराने सहयोगी दल भाजपा को छोड़कर धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले दल एनसीपी, कांग्रेस के साथ मिलकर महाविकास अघाड़ी नामक गठबंधन बनाया। शिवसेना के उद्धव ठाकरे इस गठबंधन के नेता चुने गए। नवम्बर 2019 को शिवसेना के उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने। याने महाराष्ट्र में बेमेल और विरोधी विचारधारा की सरकारों का दौर चलता रहा। यह दौर आगे बढ़ा। महज 943 दिवस उद्धव की सरकार महाराष्ट्र राज्य पर अपनी सत्ता काबिज रख पाई। फिर एक दिन अचानक महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार में शहरी विकास और लोकनिर्माण विभाग के कैबिनेट मंत्री एकनाथ शिंदे को महाविकास अघाड़ी सरकार के साथ विचारधारा का संकट नजर आया वह अपने विधायको के साथ पहले सूरत फिर गोवा की और प्रस्थान कर गए। 30 जून 2022 को एकनाथ संभाजी शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने और बेहद आश्चर्यजनक घटनाक्रम में देवेंद्र फडणवीस ने राज्य के उपमुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। अब जबकि अजित पंवार सहित एनसीपी के 9 विधायक मंत्री बनाए गए है। एकनाथ शिंदे का विरोधी विचारधारा के साथ दम घुटने का जुमला किधर है। यानी नैतिकता, सिद्धान्त, विचारधारा जनता को भ्रमित करने के आकर्षक जुमले है। इसका प्रयोग समय-समय पर सभी करते है। सवाल यह उठता है कि क्या जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि को अपनी विचारधारा के विपरीत किसी अन्य विचारधारा की सरकार में शामिल होना चाहिए। इस हेतु दलबदल निरोधक अधिनियम है। किंतु क्या कानून की आड़ लेकर सामूहिक रूप से भी दलबदल करना उचित माना जा सकता है। कतई नही दलबदल किसी भी परिस्थिति में उचित नहीं है। एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि को जब जनता चुनती है तो एक व्यक्ति को नही अपितु एक विचारधारा को चुनती है। सियासी पार्टी के एजेंडे उसके कार्यक्रमों का समर्थक करती है। किसी भी स्थिति में दलबदल का समर्थन नहीं किया जा सकता है। इन सबके बावजूद सबसे बड़ा सवाल देश के तमाम राजनीतिक दलों के सामने मुँह बाएं खड़ा है। आखिर सत्ता के लिए विचारविहीन और सिद्धान्तविहीनता का यह दौर राजनीति में कब तक चलता रहेगा। कब तक जनादेश की धज्जियां उड़ाई जाती रहेगी। कब तक मंचो से सिंद्धातों, आदर्शों का शाब्दिक जंजाल बुना जाता रहेगा। देश का आमजन कब तक ठगा जाता रहेगा ? इन सवालों पर देश की न्यायपालिका सहित चुनाव आयोग को दृढ़ता का रुख इख्तियार करना चाहिए। इस विषय पर आमजनता को भी जागरूक होने की जरूरत है। मीडिया को भी निष्पक्ष रूप से सभी दलों के अंदर खोखले होतें आदर्शों , बढ़ती मूल्यहीनता, नेताओं की सत्ता लोलुपता का सही चित्र जनता के सामने प्रस्तुत करना चाहिए। राजनीतिक दलों में खत्म होती विचारधारा गौण होते सिद्धान्त, दिखावटी अनुशासन, गुम होता आदर्श बड़ी चिंता का विषय है। सियासी दल जिन आदर्श विचारों के बल पर जनता के बीच जाते है। जिस विचारधारा के दम पर वें जनादेश प्राप्त करते है। उन्हीं का नदारद हो जाना वर्तमान दौर की राजनीति के लिए चिंता का सबब है। ऐसा नहीं है इससे पहले आदर्शों की बलि नहीं चढ़ी। सिंद्धान्तों का खून नहीं हुआ। नेताओ का सत्ता प्रेम नहीं जगा हो। सत्ता के लिए बेमेल गठबंधन नहीं हुए है। इससे पहले भी यह घटनाक्रम हुए है। किँतु पहले भी हुआ है। इसने भी किया है, उसने भी किया है। ऐसा कहकर इन गलतियों को दोहराया नहीं जा सकता है। राजनीतिक पार्टियों की विचारधारा, आदर्श और सिद्धान्त देश की आमजनता के लिए आदर्श होतें है। इन्हीं आदर्श विचारधारा से आमजन अपनी धारणा का निर्माण करता है। मूल्यविहीन राजनीति राष्ट्रनिर्माण में बाधक है। इस व्यवस्था में सुधार करना राष्ट्रहित में है। यह किसी एक कि नहीं सबकी जवाबदेही हैं।