November 22, 2024
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भारी बारिश का कहर अभी उत्तर भारत के राज्यों पर जारी है। हिमाचल प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के अलावा दिल्ली में बाढ़ का प्रकोप है। दिल्ली में हालांकि यमुना का पानी उतर रहा है, लेकिन अब भी ये खतरे के निशान से ऊपर बह रही है। इस बीच, बाढ़ और बारिश से होने वाले अन्य हादसों में मौतों का आंकड़ा डराने वाला है। अब तक के आंकड़ों के मुताबिक यूपी, पंजाब, हिमाचल और हरियाणा में बारिश और बाढ़ के कारण 89 लोगों की मौत हुई है। इनमें से पंजाब में 29 और हरियाणा में 26 मौतें हैं। यानी इन दोनों राज्यों को मिलाकर अब तक कुल 55 लोगों की जान गई है। यूपी में 10 लोगों ने जान गंवाई है।

बाढ़ के कहर के कारण पंजाब में 25000 से ज्यादा लोगों और हरियाणा में 5000 से ज्यादा लोगों को सुरक्षित इलाकों में ले जाना पड़ा है। पंजाब में घग्गर नदी ने संगरूर जिले के 20 गांवों को जलमग्न किया है। लाखों हेक्टेयर खेतों में फसल चौपट हो गई है। बाढ़ का पानी कल से कम होने के आसार बताए जा रहे हैं, लेकिन अगर तेज बारिश का दौर फिर शुरू हुआ, तो बाढ़ के फिर विकराल रूप लेने की बड़ी आशंका है। बारिश और बाढ़ की वजह से जगह-जगह जलभराव हुआ और इस वजह से आम लोगों में तमाम तरह की बीमारियां फैलने का भी अंदेशा है।

हिमाचल प्रदेश की बात करें, तो यहां पिछले दिनों आई भीषण बाढ़ के बाद 24 लोगों के शव मिले हैं। हिमाचल के सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू के मुताबिक जिन लोगों के घर पूरी तरह बाढ़ से नष्ट हुए, उनको प्रति परिवार 145000 और कम क्षतिग्रस्त घरों के लिए 1 लाख रुपए दिए गए हैं। सीएम सुक्खू के मुताबिक हिमाचल में बाढ़ से 5000 करोड़ के बराबर संपत्ति का नुकसान हुआ है। बता दें कि हिमाचल में ब्यास नदी के उफनाने से 700 से ज्यादा सड़कें और तमाम पुल बह गए हैं। इनको फिर से बनाने के लिए काफी धन खर्च होगा। उधर, पहाड़ी इलाके वाले राज्य उत्तराखंड में जबरदस्त बारिश का अलर्ट मौसम विभाग ने दिया है। शासन की तरफ से सभी जिलों को इस वजह से अतिरिक्त सतर्कता बरतने के लिए कहा गया है।

देखा  जाय तो  इस किस्म की  तीव्र मौसम-जनित घटनाएं आजकल बहुत बार  हो रही  हैं। मसलन सुनीता नारायण , जो सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट थिंक टैंक की प्रमुख हैं ,कहती हैं कि जनवरी 2022 से सितम्बर 2022 में औसतन हर दिन किसी न किसी प्रकार का अति -तीव्रता का वैदर इवेंट हुआ है ,चाहे वो हीट वेव हो या अत्यधिक बारिश या शीत लहर। पर सोचने वाली बात यह है कि क्या यह सिर्फ बिना चेतावनी की आयी आपदा है या सालों की नज़रअंदाज़ी और तमाम अन्य कारणों से।

 इस सन्दर्भ में हम विशेषतः चक्रवाती बारिशों का विकराल रूप हो बैंगलोर ,दिल्ली , हैदराबाद जैसी शहरी बाढ़ें हों , राजस्थान और गुजरात में आयी बाढ़ें (जहां बारिश का आम तौर पर कमी की समस्या होती है )और जलभराव हों , उत्तर पूर्व के आसाम और अन्य  राज्यों में  में हर वर्ष आने वाली बाढ़ें हों सभी में कोई न कोई असामान्यता तो है।

वैसे  आम तौर पर उत्तर भारत खासकर उत्तर पश्चिमी भारत अपने बहुत ही कम वर्षा के लिए जाना जाता है। दिल्ली,पंजाब,हरियाणा में बारिश के साधारण अनुपात से कहीं अधिक बारिश जब एक या दो दिन में हो जाती है तो वह इस किस्म की स्थिति को उत्पन्न करती है ,ऐसा कहा जा रहा है।

हिमाचल में कुछ दिनों पहले आपने वह रौद्र होती व्यास नदी के आगोश में बहते चमचमाती गाड़ियों और पूरे के पूरे घरों  का वायरल वीडियो देखा होगा। टूरिस्टों का फंसना। उत्तराखंड ,हिमाचल में लैंड स्लाइड्स , सड़कों का दरकना, पुलों का भरभराकर बह जाना, गले गले पानी में मवेशियों के दृश्य। वह रौद्रता अब हिमाचल, दिल्ली सहित अन्य उत्तरी राज्यों में भी पसर चुकी है। इसी तरह पंजाब के मोहाली में एक पॉश रेजिडेंशियल सोसाइटी के लोगों का वीडियो भी देखा जा सकता है जहाँ लक्ज़री गाड़ियां पार्किंग में इतनी डूब चुकी हैं कि दिखाई भी मुश्किल से पड़ रही हैं। गुरुग्राम, नोयडा तो खैर हर बारिश में ही इतने डूबे रहते हैं जबकि ये उत्तरप्रदेश ,हरियाणा और दिल्ली के अर्थ  केंद्रों में से एक हैं।

दिल्ली में तो यमुना का स्तर पैंतालीस सालों के बाद इतना भयावह हुआ है। निचले हिस्से तो जलमग्न हैं ही , पॉश सिविल लाइन्स जैसे क्षेत्र भी प्रभावित हैं।  पानी के ट्रीटमेंट प्लांट्स में पानी घुसने से पानी की आपूर्ति पर असर  पड़ा है। लाल किला हो या नयी दिल्ली हो ,यमुना पार के हाल तो बेहाल हैं ही। हज़ारों परिवार बेघर हुए हैं।  खासकर समाज के हाशिये पर रहने वाले लोग जो निचले हिस्से में रहते हैं।

सड़कों  के साथ रेलवे ट्रैक्स में पानी भर गया है। लोग बमुश्किल जैसे तैसे खुले आसमान में (जहां बारिश थमी नहीं है ) बसर कर रहे हैं। बिजली की आपूर्ति ऐसे में ठप हो गयी है। देश में जहाँ सब्ज़ियों के दाम वैसे ही आसमान छू रहे हैं वहाँ , मूलभूत ज़रूरतों की वस्तुओं की आपूर्ति ऐसे में और मुश्किल हो जाती है। इस गंदे पानी में तैरना तक पड़ रहा है। नावों की पहुँच अब हर किसी के पास तो नहीं होगी न! ऐसे में कीड़े और ज़हरीले जीवों खतरा कितना होगा सोचिये ज़रा। दवाइयों, खाने पीने से लेकर तबाह हुई गृहस्थी की मानसिक पीड़ा। यह सब फिर से जोड़ने में वक़्त लगेगा पर सवाल कि आखिर यह कोविड की तरह आयी ऐतिहासिक आपदा तो थी नहीं। तो सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप या कुदरत के कहर को दोष देना काफी होगा ?

सिर्फ यमुना ही नहीं, बाढ़ गंगा, घग्घर, कोसी, ब्यास, ब्रह्मपुत्र के किनारे के सभी राज्यों में अलग-अलग रूप में बनी हुई है। पर सवाल यहां अगर सरकारों की विफलता का है तो सूची बहुत लम्बी है। यह राजनीतिक दलों से परे भी है कि क्योंकि यह शहरी योजना की विफलता सालों की परिणति है। उदाहरण के तौर पर हमारे लगभग सभी शहरों का जल निकासी व्यवस्था अक्सर थोड़ी सी बारिश में ही गड़बड़ा जाती है। हम वैज्ञानिक ह्यड्रोजोलॉजिकल सिस्टम्स को ताक पर रखकर पर रखकर विकास कर रहे  हैं। क्लाइमेट चेंज और मज़बूत ढाँचे पर भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अगुवाई कर रहा है। पर घरेलू स्तर पर एनवायरनमेंट इम्पैक्ट अस्सेस्मेंट (EIA ) सिर्फ एक औपचारिक प्रक्रिया रह जाती है। इसमें आप किसी भी प्रोजेक्ट को पर्यावरण पर पड़ने वाले असर के पैमानों पर कसते हैं। मसलन चारधाम मार्ग निर्माण को रोकते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इसके कुछ हिस्से बेहद ही खतरनाक परिणाम दे सकते हैं।  पर 2013 की उत्तराखंड आपदा और इस कोर्ट के आदेश के बावजूद केंद्र और राज्य सरकार विकास के इस रूप के लिए कटिबद्ध रही।  उत्तराखंड को इस बार की बाढ़ों में 4000 करोड़ के इंफ्रास्ट्रक्चर की हानि हुई है। जोशीमठ का डूबना तो सर्वविदित है ही।

शहरी जनसंख्या के अनियोजित विस्तार के कारण भी यह समस्या अधिक गंभीर हो जाती है। नदियों के मैदानों में बड़े बड़े प्रोजेक्ट्स खड़े होते हो या फिर ज़मीन के कारण उन हिस्सों में झुग्गियां बनाने वाले प्रवासी और अन्य कमज़ोर वर्ग। ये सभी मज़बूरी या लालच के कारण नदी को उत्खनित करते हैं ,उसे उसकी प्राकृतिक जगह नहीं देते हैं। तो वहीं कचरा प्रबंधन की भयानक विफलता भी इस समस्या का एक कारण है। बेंगलुरु की एक झील के किनारे कुछ समय पहले आपने कचरे के विशाल ढेर देखे होंगे और सूखी झीलों में लगती आग भी। यमुना के सफ़ेद केमिकल वाले झाग युक्त पानी का रूप भी इससे जुड़ा है। शहर का सारा मलबा, कचरा आदि सब नालों ,नदियों और झीलों -नहरों आदि में ही अंततः पहुँचता है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली में सेंट्रल विस्टा यानि कि नए संसद का मलबा और मेट्रो प्रोजेक्ट्स का  हिस्सों में जलभराव की स्थिति को ख़राब कर रहा है।

आम जनता क्लाइमेट चेंज की इस प्रक्रिया को समझ रही है पर अब देर हो चुकी है ऐसा लगता है। हालाँकि जीवन में छोटे-छोटे बदलाव लाकर हम पर्यावरण की चुनौतियों से लड़ने को तैयार हो सकते हैं। पर अगर हम अंधांधुंध शहरीकरण की दौड़ में लगे रहना चाहते हैं तो फिर हम खुद ही के प्रयासों को बेकार  कर रहे हैं। सुनीता नारायण जी बड़ी अहम बात कहती हैं कि हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट मत बनाइये ऐसा बिलकुल नहीं कहा जा रहा है पर कम से कम मॉल्स की होड़ में पहाड़ों की छाती में अंधाधुंध हथौड़ा और मशीन तो मत चलाइये। उत्तराखंड त्रासदी के समय हमने कहा कि बड़े प्रोजेक्ट्स अस्थिरता लाते हैं।  पर हमने नज़रअंदाज करना चुना।

महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक में आयी कुछ साल पहले बाढ़ और चक्रवातों के साथ आयी बाढ़ दक्षिण भारत का सच है। राज्यों के बीच बैरेज से पानी छोड़े जाने को लेकर वहाँ भी तनाव एक अलग कारण रहा है जैसे दिल्ली सरकार वर्तमान में हथिनीकुंड डैम को लेकर चिंता जता रही है।

जनप्रतिनिधियों और प्रशासन को आपदा प्रबंधन को सिर्फ आपदा के दौरान और उसके बाद के करोड़ों के मुआवज़ा पैकेज की मांग तक सीमित रखने की आदत को बदलना होगा।  पर उदाहरण के तौर पर हम उड़ीसा के चक्रवात से लड़ने की व्यवस्थात्मक तैयारी से सीख  सकते हैं जिससे जानमाल की हानि अब बहुत काम होने लगी है।आपदा प्रबंधन दरअसल  जब तक हम आपदा के बाद का मसला मात्र ही समझेंगे तब तक आने वाले वर्षों में तेज़ी  से बढ़ती ये आपदाएं जान- जीवन और अर्थव्यवस्था को और गरीबी -सामाजिक उत्थान के हमारे लक्ष्यों को सालों पीछे धकेलती रहेंगी।

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