विगत नौ वर्ष में मोदी सरकार विकास एवं सशक्तीकरण के अनेक आयाम स्थापित किये हैं, सरकार ने ऐसी गरीब कल्याण की योजनाओं को लागू किया गया है, जिससे भारत के भाल पर लगे गरीबी के शर्म के कलंक को धोने के सार्थक प्रयत्न हुए है एवं गरीबी की रेखा से नीचे जीने वालों को ऊपर उठाया गया है। वर्ष 2005 से 2020 तक देश में करीब 41 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए हैं तब भी भारत विश्व में एकमात्र ऐसा देश है जहां गरीबी सर्वाधिक है। भारत और इसकी अर्थव्यवस्था की सफलताओं व संभावनाओं की बुनियाद में राजनीतिक स्थिरता, मोदी सरकार की दूरगामी एवं गरीबी उन्मूलन की योजनाओं की बड़ी भूमिका है। यूएनडीपी की वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) के आंकडे भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। साल 2005-06 में देश में करीब 64.5 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी-रेखा के नीचे जी रहे थे। वर्तमान में अब यह संख्या काफी कम होकर वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार भारत में कुल 23 करोड़ गरीब हैं।
बावजूद इसके यह स्पष्ट संकेत है कि तमाम कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नए विचारों एवं कल्याणकारी योजनाओं पर विमर्श के साथ गरीबों के लिये आर्थिक स्वावलम्बन-स्वरोजगार की आज देश को सख्त जरूरत है। गरीबों को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने एवं उनके वोट बटोरने की स्वार्थी राजनीतिक मानसिकता से उपरत होकर ही संतुलित समाज संरचना की जा सकती है। मोदी सरकार राजनीतिक रूप से स्थिर रही हैं और इनकी प्राथमिकताओं में गरीबी उन्मूलन प्रमुखता से शामिल रहा है। महान् अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की सरकार भी स्थिर थी और उन्होंने भी गरीबी उन्मूलन के ठोस उपक्रम किये। उनकी सरकार के समय से ही यह प्रयास निरन्तर जारी है। अनूठी बात यह है कि ये दोनों सरकारें दो विपरीत राजनीतिक ध्रुवों पर खड़ी रही हैं, पर इनका आर्थिक दर्शन एक रहा है। मगर भारतीय अर्थव्यवस्था के नीति-नियंताओं को इसकी कुछ विसंगतियों को गंभीरता से देखने की जरूरत है। देश में गरीबी का अंत जितना जरूरी है, आर्थिक विषमताओं से निपटना उससे कम अहम नहीं है।
ऑक्सफेम की हालिया रिपोर्ट ने खुलासा किया था कि देश की 60 फीसदी संपत्ति सिर्फ पांच प्रतिशत भारतीयों के पास है, जबकि निचले 50 प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्रीय संपत्ति का सिर्फ तीन फीसदी हिस्सा है। हमें इस बात की खुशी है और होनी चाहिए कि हमने डेढ़ दशकों में इतने करोड़ों लोगों को गरीबी-रेखा से ऊपर उठाया, मगर हम इस तथ्य की भी अनदेगी नहीं कर सकते कि 80 करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त राशन मुहैया कराया जा रहा है। एक अच्छी-खासी तादाद में हमारे करोड़पति-अरबपति दूसरे देश जाकर बस भी रहे हैं। क्या भारतीय नागरिकता छोड़ने वाले अरबपतियों पर कोई प्रभावी दण्ड व्यवस्था लागू नहीं होनी चाहिए ? भारतीय सत्ता प्रतिष्ठानों को इन विसंगतियों पर नियंत्रण पाने के तार्किक रास्ते तलाशने होंगे। हम नहीं भूल सकते कि हमारी गरीबी की रेखा जिस स्तर पर तय होती है, उसके ऊपर भी जीवन काफी कठिन है। इसलिए इन खुशनुमा आर्थिक तस्वीरों को हाशिये के करोड़ों भारतीयों के लिए सुखद बनाने की कवायद की जाए।
जिन दो एजेंसियों ने भारत की सुखद एवं खुशहाल आर्थिक तस्वीर प्रस्तुत की है, उस तस्वीर में एक वर्तमान भारत से संबंधित है, दूसरी भविष्य के भारत के संबंध में। दोनों ही तस्वीर नये भारत, सशक्त भारत, विकसित भारत एवं दूसरी की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनने की बात को उजागर कर रही है। इन सुखद क्षणों में अधिक सावधानी एवं सर्तकता अपेक्षित है। यह अधिक चुनौतीपूर्ण दौर है, क्योंकि भारत अमीर-गरीब के बीच बढ़ रहा फासला एक चिन्ता का कारण है, जिस बड़ा राजनीतिक मुद्दा होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से यह मुद्दा कभी भी राजनीतिक मुद्दा नहीं बना। शायद राजनीतिक दलों की दुकानें इन्हीं अमीरों के बल पर चलती है और गरीबी कायम रहना उनको सत्ता दिलाने का सबसे बड़ा हथियार है। दुर्भाग्यपूर्ण है