उरई। आजादी के बाद चुनी जा रही 18वीं लोकसभा के लिए जिले के वोटर पांचवे चरण में 20 मई को मतदान करेंगे। यह पहली बार है जब इस संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस ने उम्मीदवार नहीं उतारा है जबकि एक समय इस क्षेत्र को कांग्रेस के अपराजेय गढ़ के रुप में चुना जाता था। 1952 के पहले आम चुनाव से लेकर 1971 तक यहां लगातार कांग्रेस के उम्मीदवार जीते। चौधरी राम सेवक ने तो इस दौरान हैट्रिक बनाने का रिकॉर्ड कायम किया। इसके चलते इंदिरा दौर में वे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के बड़े दलित चेहरे के रूप में पहचाने जाने लगे। इंदिरा गांधी ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव की जिम्मेदारी भी सौंपी। इसके बाद केंद्र सरकार में स्वास्थ्य राज्य मंत्री भी बनाया। इसके बावजूद इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के चुनाव में जनता लहर की आंधी में वे भी अपना सियासी तम्बू नहीं बचा पाए। हालांकि ढाई साल बाद जनता पार्टी की अंतर्कलह उसकी सरकार को ले डूबी और मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गयी। 1980 में हुए इस चुनाव में कांग्रेस ने यहां पहली बार चौधरी परिवार से बाहर के नाथूराम शाक्यवार को उम्मीदवार बनाया। कांग्रेस का यह पासा कामयाब रहा और नाथूराम शाक्यवार ने आशा के अनुरूप यहां फिर से कांग्रेस का परचम लहरा दिया। हालांकि 1984 में कांग्रेस ने फिर चौधरी परिवार की ओर वापसी करते हुए गुमनाम प्राय हो चुके बुजुर्ग लच्छीराम को 22 वर्ष के राजनीतिक वनवास से निकाल कर उम्मीदवार बना डाला। इंदिरा गांधी की हत्या के कारण कांग्रेस के पक्ष में उमड़ी सहानुभूति लहर के चलते चौधरी लच्छीराम को बड़े मार्जिन सेइस चुनाव में विजयश्री के वरण का अवसर मिल गया लेकिन यह कांग्रेस की यहां अंतिम जीत साबित हुई। 1989 में जनता दल उम्मीदवार राम सेवक भाटिया के सामने चौधरी लच्छीराम को पराजय का मुंह देखना पड़ा जिसके साथ ही कांग्रेस की इस सीट पर विजय का सिलसिला ऐसा टूटा कि पार्टी आज तक उबर न सकी है। 1991 में हुए चुनाव में कांग्रेस इस सीट पर तीसरे नंबर पर पहुंच गई और 1996 में उसके उम्मीदवार की जमानत भी जब्त हो गयी। बसपा के इस क्षेत्र में सितारे नेताओं में शुमार रहे रामाधीन, विजय चौधरी और पूर्व सांसद बृजलाल खाबरी तक को पार्टी ने अपने पाले में खींच कर चुनाव लड़ाया पर इनमें भी कोई कांग्रेस को यहाँ जीवनदान न दिला सका। उक्त आयातित हैवीवेट नेताओं को भी कांग्रेस में जमानत बचाने के लाले पड़ गए। इसी दुर्दशा के कारण कांग्रेस ने इस बार गठबंधन में यह सीट सपा के लिए छोड़ने की मंजूरी आसानी से दे दी। वहीं जिले की राजनीति में कांग्रेस को छूछा करने का मुख्य श्रेय बसपा को है। 1988 में प्रदेश की तत्कालीन नारायण दत्त तिवारी सरकार ने 14 साल बाद राज्य में स्थानीय निकाय के चुनाव कराने का फैसला किया। इन चुनावों में बसपा ने जिले भर में मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर सियासी फिजा को रोमांचक बना दिया। हर नगर में अली बली का कोहराम मच गया। ध्रुवीकरण का ऐसा माहौल बना कि मुसलमान और दलित कांग्रेस से छिटक कर बसपा में चले गए जबकि ब्राह्मण भाजपा में यही तीनो कांग्रेस के कोर वोटर थे। विधानसभा चुनावों में बसपा को जो सफलताये मिली उससे यह लामबंदी गहराती गयी जिसमें कांग्रेस का वजूद पिसकर रह गया। अंततोगत्वा कांग्रेस का नाम यहां लुप्तप्राय राजनीतिक प्रजाति के बतौर शेष रह गया है।