ललितपुर- विश्व महिला दिवस पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के सेवानिवृत प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि उपनिषद के महाकाव्य में ऋषि कहते हैं
तत्मात इवं अर्द्ध वृगल निव
स्वइतिहस्म आह याज्ञवल्क्य ।
अर्थात् दिव्य पुरूष ने अपने ही शरीर के दो अर्द्ध भाग किए उससे पति और पत्नी उत्पन्न हुए ।इसलिए याज्ञवल्क्य ने कहा, पति या पत्नी का यह शरीर एक का अर्द्ध भाग है , जैसे छिले हुए मटर के दो अर्द्ध भाग । पुत्रों को आगे से भी आगे , रखने के लिए अवसरों की बौछार, और पुत्रियों को पीछे से भी पीछे रखने के लिए ,ऐसा तिरस्कार ।
जिस घर की स्त्रियाँ सत्य का पालन करती हैं , उसी घर में महापुरुष जन्म लेते हैं । बच्चे के पैदा होते ही परमात्मा उसे भूख दे देता है , साथ ही माँ उसे दूध पिलाकर प्रेम के बीज को अंकुरित होकर विकसित करने का मूलमंत्र भी माता देती है । अत: श्रेष्ठतम गुरु माँ से बढ़कर और दूसरा नहीं है ।
पार्टियाँ समाज को पार्टों या टुकड़ों में न बाँटें , पचास प्रतिशत टिकिट लोकसभा चुनाव में स्त्रियों को देकर , पुरूष होने का , अपने अन्दर साहस जुटाएँ ।
वर्तमान नारी मुक्ति की अंतिम चकाचौंध के बाद और भी घना अंधकार , कदाचित पहले की अपेक्षा, उनकी लाचार जड़ता और दासता में आज भी यौनपरक गाली-गलौज तकियाकलाम की तरह बात बात में अक्सर यौन पूर्वाग्रह की सड़ी-गली कूड़मगज पुरुषवादी मानसिकता में दिखाई दे जाता है । अक्सर गाली-गलौज करते समय वे अपने को वीरतापूर्ण दम्भ से ” सूरमा भोपाली ” समझने की खुशफहमी में रहते हैं । इस मूर्खतापूर्ण घृर्णास्पद परम्परा के कारणों के समझना बहुत कठिन है । कदाचित गाली का शब्द एक ससिती घृणित और बिल्कुल नीच अश्लीलता है , सबसे अधिक असभ्य , सर्वाधिक आदिम संस्कृति का एक चिन्ह है जो हमारे प्रयासों को मानवद्वेषी धृष्ट और गुण्डागर्दी की छिछली भाषा से प्रेरित होता है ।
जिस तर्ज पर राजनैतिक पार्टियाँ चुनाव में पुरुष केन्डीडेट को जितौअल समझ कर पुरुषों को तो दोनों हाथ से टिकिट पकड़ा देती हैं किन्तु 1/2 स्त्रियों को जन्मजात कमजोर समझकर निर्वाचन को मात्र सट्टा बाजार समझकर स्त्री केन्डीडेट को टिकट देकर किसी तरह का जोखिम लेने का जुआ नही खेलना चाहती हैं जबकि हमारा संविधान लैंगिक भेदभाव को एक दण्डनीय अपराध मानता है ।
हमारा संविधान पुरुष और महिलाओं की पूर्ण समानता को मानता है । परंतु केवल समानता की बातें करके या कानूनों में उसे शामिल कर देने मात्र से ही नहीं , वरन् महिलाओं को अपनी क्षमताओं के पूर्ण विकास के अवसर देकर ही वास्तविक समानता आती है । घर की देखभाल और बच्चों का लालन-पालन एक महिला की जिम्मेदारी परम्परा से ही एक गृहणी पर डाल देने से उसका विकास कोल्हू के बैल की तरह सीमित हो जाता है । इसलिए परिवार के सभी सदस्यों को घरेलू कामों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए ।
जो बेटियां बिना दहेज के ससुराल में आतीं हैं , उनके समर्पण , सहिष्णुता और सामंजस्यपूर्ण समरस स्वभाव के बहुमूल्य गुणों की अनदेखी भौतिकवादी सामाजिक ढर्रे का अनिवार्य लक्षण है । किन्तु जो बेटियां विवाह के पूर्व या पश्चात आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाती हो जाती हैं वे पारिवारिक जीवन के सोने में सुगन्ध भरती रहती हैं । इसलिए परिवेश को बदलने में सभी का योगदान अपेक्षित है ।
समसामयिक युग में यह मान्यता कालातीत नही पड़ सकती कि यदि एक युवक ने अपने माता पिता से , पड़ोसियों , साथियों , दोस्तों से प्यार न किया हो तो वह उस औरत को कभी प्यार नहीं करेगा जिसे उसने अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा है । एक जो आदमी अपने देश , अपने लोगों और काम से प्यार करता है , वह कभी भी लंपट दुराचारी नहीं बनेगा , और वह एक नारी को महज एक मादा के रूप में देखने का अपराध भी नही करेगा ।