November 29, 2024

पहल टुडे

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गाजीपुर।केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित लघु औद्योगिक विकास योजना द्वारा निर्देशित उद्यमिता जागरुकता कार्यक्रम अन्तर्गत...

क्या ज्ञानवापी की राह में कांग्रेस का लाया ये कानून बन सकता सबसे बड़ा रोड़ा? भगवान राम अयोध्या स्थित अपने दिव्य भव्य और नव्य मंदिर में क्या विराजमान हुए, देश के बरसों पुराने मुद्दे सुलझने लगे हैं। अभी इसी सप्ताह ही वाराणसी के ज्ञानवापी परिसर के बारे में एएसआई की रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि वहां पहले हिंदू मंदिर था जिसे ध्वस्त कर मस्जिद का निर्माण किया गया। उसके बाद देशवासियों का मन आज तब खुशी से झूम उठा और चारों ओर हर हर महादेव के नारे लगने लगे जब उत्तर प्रदेश के वाराणसी की जिला अदालत ने ज्ञानवापी परिसर में स्थित व्यास जी के तहखाने में हिंदुओं को पूजा-पाठ करने का अधिकार देने का आदेश दे दिया। जिला न्यायाधीश अजय कृष्ण विश्वेश की अदालत ने तहखाने में पूजा पाठ करने का अधिकार व्यास जी के नाती शैलेन्द्र पाठक को दे दिया है। बताया जा रहा है कि प्रशासन सात दिन के अंदर पूजा-पाठ कराने की व्यवस्था करेगा और पूजा कराने का कार्य काशी विश्वनाथ ट्रस्ट करेगा। आदेश आते ही बुधवार को अदालत द्वारा ‘व्यास का तेखाना’ में अनुमति दिए जाने के बाद ज्ञानवापी के एक तहखाने में पूजा की रस्में गुरुवार से शुरू हुईं। काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी मस्जिद पर कानूनी लड़ाई में यह एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। 30 साल बाद ये पूजा की गई है। गुरुवार को एक श्रद्धालु ने कहा कि हम सभी यहां हर दिन सुबह 3-3 बजे दर्शन के लिए आते हैं। हम कोर्ट के आदेश से बेहद खुश और भावुक हैं। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं है। वकील सोहन लाल आर्य ने कहा कि हम आज बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अदालत का कल का फैसला अभूतपूर्व था। व्यवस्था कर दी गई हैं लेकिन इसे (व्यास का तेखाना) अभी तक भक्तों के लिए नहीं खोला गया है। गौरतलब है कि आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ASI) ने आपकी साइंटिफिक सर्वे रिपोर्ट में कहा है कि वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद, मंदिर तोड़कर बनाई गई थी। सर्वे के दौरान मस्जिद के अंदर भव्य हिंदू मंदिर के अवशेष पाए गए। ASI की 839 पेज की रिपोर्ट अदालत में पेश की गई। कानूनी जानकार बताते हैं कि हिंदू पक्ष इस रिपोर्ट को सबूत के तौर पर इस्तेमाल कर सकता है, लेकिन इसकी राह में कानूनी अड़चनें भी हैं। सबसे बड़ा रोड़ा 33 साल पुराना पूजा स्थल कानून । अब चूँकि मुस्लिम ऊँची अदालतों में इस फैसले के विरोध कर रहा है जहाँ उन्हें 1991 में कांग्रेस राज में बना कानून सहायता कर सकता हैं । दरअसल प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट या पूजा स्थल कानून साल 1991 में बना था । उस वक्त केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री हुआ करते थे। इस कानून के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले भारत में जिस भी धर्म का जो पूजा स्थल था, उसे किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में बदला नहीं जा सकता। अगर कोई ऐसा करने का प्रयास करता है तो उसे 3 साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है। पूजा स्थल कानून बनाने की जरूरत क्यों पड़ी थी ? इसकी वजह श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़ी है। 1990 के दशक में आंदोलन चरम पर था। लालकृष्ण आडवाणी रथ यात्रा लेकर अयोध्या के लिए रवाना हुए, लेकिन उन्हें बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया। केंद्र की वीपी सिंह की सरकार गिर गई और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। हालांकि चंद्रशेखर की सरकार भी ज्यादा दिन टिक नहीं पाई। नए सिरे से चुनाव हुए और कांग्रेस सत्ता में आई। पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, लेकिन मंदिर आंदोलन बढ़ता ही जा रहा था। अयोध्या के अलावा देश में और कई जगहों पर सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ने का खतरा था। सरकार ने इस विवाद पर विराम लगाने के लिए कानूनी रास्ता खोजना शुरू किया और उसकी खोज पूजा स्थल कानून पर जाकर खत्म हुई। कांग्रेस सरकार ने मंदिर-मस्जिद विवाद पर विराम लगाने के लिए पूजा स्थल कानून बना दिया। इस कानून में 15 अगस्त 1947 की डेट कट ऑफ के तौर पर तय कर दी। ज्ञात हो कि साल 1991 में जब यह कानून लाया गया, तब विवादित बाबरी ढांचे का मामला न्यायालय में लंबित था। इसलिए बाबरी को इस कानून से छूट मिल गई। हालांकि अगले साल यानी 1992 में विवादित बाबरी ढांचे को ध्वस्त कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट में दशकों तक मामला चला और आखिरकार 2019 में उच्चतम न्यायालय ने हिंदू पक्ष के हक में फैसला दिया। भाजपा का शुरू से यह स्टैंड रहा था कि जो भी हिन्दू पूजा स्थल तोड़ का मस्जिद में बदल दिए गए है वे हिन्दुओं को वापस मिलना चाहिए । इसीलिए साल 1991 में जब कांग्रेस सरकार यह कानून लेकर आई तब भी बीजेपी ने इसका पुरजोर विरोध किया था। तब अरुण जेटली, उमा भारती जैसे नेताओं ने इसे संसदीय समिति के पास भेजने की मांग की थी, हालांकि कानून पास हो गया था। एक वर्ग अब भी कानून पर सवाल उठाता रहा है। उनका कहना है कि 1947 से ठीक पहले तमाम पूजा स्थल तोड़े गए। उन्हें दूसरे धर्म के पूजा स्थल में तब्दील कर दिया गया, ऐसे में 15 अगस्त 1947 का कट ऑफ तार्किक नहीं है। तीन दिनों तक चली बहस के दौरान, दोनों पक्षों ने दावा किया कि उनकी स्थिति सांप्रदायिक सद्भाव सुनिश्चित करेगी। अंततः, विधेयक बिना किसी बड़े संशोधन के पारित हो गया और इसके दायरे से अयोध्या और जम्मू-कश्मीर को बाहर रखा गया। विधेयक का समर्थन करने वाले कांग्रेस के तत्कालीन लक्षद्वीप सांसद पीएम सईद ने पूछा कि अयोध्या स्थल को इसके दायरे से बाहर क्यों रखा गया है। मैं गृह मंत्री से यह स्पष्ट करने का अनुरोध करता हूं कि इसे विधेयक से बाहर क्यों रखा गया है। विश्व हिंदू परिषद ने कुछ पत्रों की श्रृंखला प्रसारित की है जिसमें उन्होंने न केवल बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि बल्कि वाराणसी, मथुरा और ताज महल का भी मुद्दा उठाया है। वे इन सभी को ध्वस्त करना चाहते हैं। बंगाल के बोलपुर से तत्कालीन सांसद सीपीआई (एम) के सोमनाथ चटर्जी, ने कहा कि उनकी पार्टी ने अयोध्या विवाद को शामिल करने को प्राथमिकता दी होगी, लेकिन उन्होंने दिए गए विधेयक को स्वीकार कर लिया। कि अयोध्या एक “बड़ा भावनात्मक मुद्दा” बन गया है जिसे आपसी बातचीत से हल किया जाना चाहिए। दिग्विजय सिंह विधेयक से जम्मू-कश्मीर को बाहर करने के खिलाफ थे। उन्होंने कहा था कि मैं गृह मंत्री से आग्रह करूंगा कि वे इस निर्णय पर पुनर्विचार करें और अपने इस पक्ष के मित्रों को इस विधेयक के खिलाफ किसी प्रकार का दुष्प्रचार न करने दें। एक साल बाद, दिसंबर 1992 में वीएचपी और अन्य हिंदू समूहों के कार्यकर्ताओं द्वारा बाबरी मस्जिद को नष्ट कर दिया गया, जिससे पूरे देश में सांप्रदायिक हिंसा फैल गई। नरसिम्हा राव की उनकी सरकार द्वारा स्थिति को संभालने के तरीके की भारी आलोचना की गई, जिसमें भाजपा के नेतृत्व वाली यूपी सरकार को अनुमति देना भी शामिल था। 2022 में, गुना से भाजपा सांसद कृष्ण पाल सिंह यादव ने अधिनियम को निरस्त करने के लिए एक निजी विधेयक पेश किया। हालाँकि, यह अभी तक चर्चा में नहीं आया है। पूजा स्थल कानून या प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट के खिलाफ बीजेपी नेता और एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रखी है। कानून को चुनौती दी है। इसके अलावा बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी समेत 4 अन्य लोगों ने भी कानून के खिलाफ याचिका दायर कर रखी है। अश्विनी उपाध्याय ने इस कानून की धारा 2, 3 और 4 को रद्द करने की मांग की है। वह कहते हैं कि यह कानून साफ तौर पर हिंदू, जैन सिख और बौद्ध धर्म के लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करता है। क्योंकि मुख्य तौर पर इन्हीं चार धर्म के लोगों के पूजा स्थल आक्रमणकारियों ने तोड़े और अब इनके पास कोई कानूनी रास्ता भी नहीं बचा है। मीडिया से बातचीत में अश्विनी उपाध्याय दावा करते हैं कि देश में करीब ऐसे 900 मंदिर हैं, जिन्हें 1192 से 1947 के बीच तोड़ा गया और उनकी जमीनें कब्जा ली गईं। बाद में उन्हें या तो मस्जिद या चर्च में तब्दील कर दिया गया। बहरहाल, अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी के आखिर तक केंद्र सरकार से जवाब तलब किया है। सार यह है कि काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद मालिकाना हक के केस को सुलझाने में पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 एक महत्वपूर्ण फैक्टर साबित हो सकता है। अधिनियम की धारा 3 और 4 अनिवार्य रूप से घोषित करती हैं कि पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र, तत्कालीन को छोड़कर- अयोध्या में विवादित राम जन्मभूमि 15 अगस्त, 1947 की तरह ही बनी रहेगी और कोई भी व्यक्ति किसी भी धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल को किसी अलग संप्रदाय या खंड में परिवर्तित नहीं करेगा। सुप्रीम कोर्ट इस बात पर सुनवाई कर रहा है कि क्या 1991 का कानून किसी अन्य पूजा स्थल के संबंध में ऐसी याचिका दायर करने पर भी रोक लगाता है। अब तक, केवल मौखिक टिप्पणियाँ प्रस्तुत की गई है, न्यायालय ने अभी भी इस मुद्दे पर निर्णायक रूप से निर्णय नहीं दिया है।

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