बहराइच। वैसे तो डोरे से बांधकर नचाई जाने वाली काठ की पुतली कठपुतली कहलाती है। इस पर तमाम तरह के मुहावरे भी बन चुके है जिसमे ये मुहावरा”दूसरे के इशारे पर नाचना”काफी प्रचलित भी है। बावजूद इसके कठपुतली का प्रचलन अब पूरी तरीके से खत्म सा हो चुका है। बताते चले कठपुतली कला के बारे मे तमाम तरह के अपने अलग-अलग मत भी है। जानकारी के मुताबिक कठपुतली रंगमंच का एक बहुत ही प्राचीन रूप है जिसे पहली बार प्राचीन ग्रीस मे पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व तीन सौ वर्ष पूर्व कठपुतली के प्रचलन की बात कही गई है। इतिहासकारो की माने कठपुतली का इतिहास बहुत ही पुराना है। इतिहासकारों का कहना है की ईशा पूर्व चौथी शताब्दी मे पाणिनी की अष्टाध्यायी मे “नटसूत्र” मे पुतला नाटक का भी उल्लेख मिलता है।कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक व्याख्या कुछ इस प्रकार भी कर चुके है की भगवान शिव ने काठ की मूर्ति मे प्रवेश कर माता पार्वती का मन बहलाकर इस कठपुतली कला की शुरुवात की थी लेकिन आज कठपुतली कला कही भी दिखाई नही पड़ती। जिस ओर सरकार को विलुप्त हो रही कठपुतली कला को जीवान्त करना चहिए।