कई भाषाओं में उपलब्ध सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के दुनिया भर में करोड़ों यूजर्स हैं। यह आँकड़े ही इस साइट की कामयाबी की दास्तान बयाँ करते हैं। फेसबुक समाज से जुड़ने का एक अच्छा माध्यम है, लेकिन अति हर चीज की बुरी होती है। वर्तमान में युवा फेसबुक पर ज्यादा समय बिता रहे हैं। रुचि बढ़ने पर सृजनात्मकता पर बुरा असर होता है। यहाँ बनने वाली रिलेशनशिप भी रियल लाइफ में उतनी कामयाब नहीं हो पाती। आज युवाओँ के लिए फेसबुक एक नशे की तरह हो चुका है। 18-30 साल के युवा परिवारजनो से कटे-कटे से रहते है, यहाँ तक कि रात मेँ बाहर रहने बजाय बंद कमरे मे रहना ज्यादा पसंद करते है, वे रोज दो से आठ घंटे तक फेसबुक से चिपके रहते हैं। इससे न केवल उनकी पढ़ाई प्रभावित हो रही है, बल्कि कुछ नया करने की रचनात्मकता भी खत्म हो रही है। अधिकांश युवाओं के लिए फेसबुक उनके फेसबुकिया समाज मे खुद को अल्ला-मियाँ दिखाने का माध्यम बना हुआ है। कई सभ्य लोगो के भी हाल बुरे, राजनीतिक लोग भी आजकर सभाओ मे फेसबुक पर चिपके दिखाई देते रहते है।
अगर सकारात्मक सोचे तो पायेगे कि फेसबुक फायदे वाला भी है। ऐसा लगभग हर रोज़ होता है कि यहाँ हम किसी को, और कोई हमें खोज ही लेता है। जिन अध्यापको, सीनियरो से हम आमने-सामने बात नही कर सकते है, उनसे बात के सिलसिले शुरु करने का अच्छा माध्यम है। कई बार कुुुुछ समाचार मीडिया में बाद में आते है, उससे पहले फेसबुक पर ही मिल जाते है। फेसबुक सभी तरह की भावनाओं को व्यक्त करने का बहुत बढ़िया प्लेटफार्म है। यह कई अच्छे बुद्धजीवियों के लिखे लेखों से भी रूबरू करवाता है। जो आपको पसंद है वो सब कुछ है यहाँ, यह हम पर निर्भर करता है की हम इस फेसबुकिया संसार के समंदर से पत्थर निकालते है या फिर मोती। आपके पास वास्तविकता में दोस्त की कमी हो सकती है, लेकिन यहाँ बिलकुल नहीं है। परन्तु आज कुछ गंदे मानसिकता वाले लोंग सिर्फ यहाँ गन्दगी ही फैलाते है, बहुत हद तक संभव है कि वे असल ज़िन्दगी में भी ऐसे ही होते है।
2015 मे हुुुुए एक शोध में कहा गया है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ज्यादा समय बिताने से चिड़-चिड़ापन और गुस्सा बढ़ने लगता है। दोस्तों से रिश्ते भी पहले जैसे नहीं रहते। शोध यह भी कहता है कि फेसबुक पर रोज दो घंटे गुजारना मानसिक क्षमता पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। मुख्यत: फेसबुक तनाव देती है। तनाव बढ़ने की शुरुआत फ्रेंड्स बढ़ने के साथ शुरू होती है। जितने ज्यादा दोस्त, उतना तनाव। जब लिस्ट में 500 से ज्यादा दोस्त हो जाते हैं तो अच्छी व मनोरंजक पोस्ट डालने का प्रेशर बढ़ जाता है। स्टेटस पर जब मन मुताबिक लाइक और कॉमेंट नही मिलते तो भी तनाव बढ़ता है। मैसेज बॉक्स में अनचाहे लोगों के मैसेज देखकर मानसिक तकलीफ होती है। निजी सम्बन्धो को फेसबुक पर बढ़ाने में कई तरह की समस्याएँ आती हैं, जैसे किसी तीसरे का बीच में घुस आना। ऐसे लोगों का डर हमेशा लगा रहता है, जिन्हें आप अपनी फ्रेंड लिस्ट में नहीं देखना चाहते।
बात करे अगर प्यार और बेवफाई की तो पायेँगे कि युगों से दुनिया इस बेवफाई से परेशान रही है, लेकिन तकनीक के विकास ने इस परेशानी को और ज्यादा बड़ा बना दिया है। साइबर संबंधों की लोकप्रियता ने बेवफाई का एक नया समाजशास्त्र रचा है। कुछ लोग इसे तकनीकी प्यार, अंधा प्यार आदि नामोँ से नवाजते है। दरअसल, कुछ लोग ऑन लाइन अफेयर या साइबर दोस्ती को महज खेल मानकर करते हैं। वह मानते हैं यह वास्तविक नहीं है सिर्फ तफरीह के लिए है जिससे कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन शोधकर्ता विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं हैं। ताजा शोधों के अनुसार न सिर्फ अविवाहित बल्कि कुछ विवाहित लोग भी साइबर दोस्ती में गंभीर हो जाते हैं। यही वजह है कि साइबर दोस्ती के चलते उन समाजों में जहां इंटरनेट लाइफ स्टाइल का हिस्सा बन गया है, तलाक के मामले बढ़ गए हैं। आज अधिकांश तलाकों के पीछे यही साइबर दोस्ती खलनायिका बनी खड़ी होती है।
विशेषज्ञों का मानना है कि भविष्य में यह और भी खतरनाक साबित हो सकती है, क्योंकि अभी भी इंटरनेट का इस्तेमाल करने से लोगों की एक बड़ी संख्या वंचित है। यही नहीं अभी भी इंटरनेट कल्चर में जन्मे और रचे-बसे तथा उसे एक लाइफ वैल्यू की तरह लेने वालों का प्रतिशत उन लोगों से कम है,जो ऐसा नहीं करते। विशेषज्ञों का मानना है कि जब ज्यादातर लोगों की जिंदगी का निर्धारक इंटरनेट बन जाएगा तब यह वास्तविक जीवन में कहीं और ज्यादा हस्तक्षेप करने वाला साबित होगा। चिंताजनक बात यह है कि दुनिया इसी दिशा में आगे बढ़ रही है। इसकी वजहों में सबसे बड़ी वजह यह है कि आज इंटरनेट बहुत ही आसानी से उपलब्ध है। इसमें गुमनाम रहने की भी सुविधा है, इसलिए आज साइबर दोस्ती के जरिए आसानी से बेवफाई की जा सकती है। वास्तविक दुनिया में भी ललचाने वाले क्षणों की कमी नहीं, लेकिन साइबर संसार तो इसकी खान बन गया है। साइबर दुनिया के 90 प्रतिशत विवरण और दावे झूठे हैं यह जानते हुए भी लोग इन विवरणों के मजा लेने का कोई मौका नहीं चूकना चाहते। नतीजा यह निकलता है कि सच्चाईयां अवचेतन का हिस्सा हो जाती हैं और अवचेतन की सुप्त कल्पनाएं सच्चाई महसूस होने लगती है।
नतीजा यह होता है कि तमाम विशेषज्ञीय चेतावनियों के बावजूद लोग साइबर दोस्ती के दलदल में धंसते चले जाते हैं। उसमें धंसते हुए भी भाव यही होता है कि हम तो सबकुछ असलियत में जानते हैं महज मजा लेने के लिए अनजान बनने का नाटक कर रहे है, लेकिन अनजान बनने का नाटक करते-करते सचमुच में नेटसेवी कब अनजान हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। धीरे-धीरे हालात ऐसे हो जाते है कि आप कई बार चाहकर भी इससे अलग नहीं हो पाते है। इसलिए जरुरत है कि एक सीमा में साइबर दोस्ती को समझा जाये। साथ ही अपने वास्तविक समाज और फेसबुकिया समाज के अन्तर को स्पष्ट से अपने मानसिक पटल पर रखा जाये। जिससे कही ऐसा न हो फेसबुकिया समाज में तो हम आगे निकल जाये लेकिन हकीकत में पडोसी भी न पहचानता हो। संस्कार, व्यवहार, आत्मीयता, प्रेम, साहस, मार्गदर्शन और अनुशासन हमे वास्तविक समाज ही दे सकता है। इसका दूसरा कोई अन्य विकल्प नही है।