November 24, 2024
download (8)

कोई दो राय नहीं कि ‘नारी अस्मिता’ से खेलने की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती और ऐसा करने वालों को सख्त से सख्त सजा अविलम्ब देनी चाहिए। लेकिन हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक, प्रशासनिक व अन्य कारणों से जबतक हमलोग ‘मानवीय अस्मिताओं’ को रौंदने वालों को क्षमा करते रहेंगे, तबतक ऐसी अप्रत्याशित घटनाएं अपनी प्रकृति बदल बदल कर सामने आती रहेंगी! और यह सभ्य समाज कुछ दिन तक हायतौबा मचाने के बाद पुनः उसी ढर्रे पर लौट जाएगा, जो इस देश की एक आदिम प्रवृति समझी जाती है।

लिहाजा, आज आजादी के अमृत कालखण्ड की सबसे बड़ी जरूरत है कि संवैधानिक कारणों से पैदा हुए सामाजिक असंतोष की शिनाख्त की जाए और उसे भड़काने वाले सियासतदानों, प्रशासनिक अधिकारियों, न्यायविदों और मीडिया प्रमुखों की स्पष्ट पहचान की जाए और समान रूप से उनकी पात्रताएँ निरस्त की जाएं, क्योंकि देश की सभी अप्रत्याशित घटनाओं के पीछे इनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका अक्सर संदिग्ध पाई जाती हैं! चाहे यह बात उन्हें पता हो या न हो, पर पब्लिक डोमेन में उनकी भूमिकाओं पर चर्चाएं होती रहती हैं। शायद संवैधानिक रूप से विभाजित किए हुए समाज का यह विकृत असर हो।

मुझे यहां पर यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि हमारे संविधान निर्माता अव्वल दर्जे के ‘कालिदास’ (महामूर्ख!) निकले, जिन्होंने समान मताधिकार से इतर जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और लिंग के आधार पर हुई अपनी नुमाइंदगी को परिपुष्ट करते हुए जिन जिन विषमता मूलक वैचारिक विष-पौध (आरक्षण, अल्पसंख्यक आदि) का प्रतिरोपण किया, वो 75 साल बाद विशालकाय विष-वृक्ष बनकर हमारे सामाजिक और साम्प्रदायिक सौहार्द को ललकार रही हैं। …..और हम इतने नाकाबिल हो चुके हैं कि उन्हें रोकने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं, बल्कि सिर्फ घड़ियाली आंसू ही बहा पाने में सक्षम प्रतीत हो रहे हैं!

इसलिये आज ‘मर्माहत राष्ट्र’ की पुकार है कि ‘बहुमत आधारित लोकतंत्र’ को समाप्त किया जाए और ‘सर्वसम्मति वाले लोकतंत्र’ को बढ़ावा दिया जाए, प्रशासनिक रूप से अनियंत्रित होते जा रहे इस देश व समाज को नियंत्रित किया जा सके। जातीय, सांप्रदायिक व चुनावी हिंसा-प्रतिहिंसा को घटनाओं को थामा जा सके। हमारे राजनीतिक संस्थाओं, प्रशासनिक संस्थाओं, न्यायिक संस्थाओं और मीडिया प्रतिष्ठानों के साथ साथ बाजारू व कारोबारी घरानों को इतना काबिल बनाया जा सके कि वह संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति के बजाय राष्ट्र के व्यापक हित में और हरेक भारतीय के दूरगामी हित में संवैधानिक हल ढूंढें।

यदि वो जरूरत महसूस करें तो संवैधानिक संशोधन करवाने का माहौल बनाएं और वैसे हरेक संवैधानिक अनुच्छेद या उपबन्ध को तिलांजलि दे दें, जो दूसरे भारतीयों का हक किसी भी रूप में छिनता हो या उसे चिढ़ाता आया हो। क्योंकि आज स्थिति इसलिए दिन ब दिन जटिल होती जा रही है कि विधि व्यवस्था व प्रशासनिक व्यवस्था के सवाल को भी यह तंत्र राजनैतिक नजरिये से देखने का आदि हो चुका है, जिससे समाज के बहुसंख्यक लोगों का तो भला हो जा रहा है, लेकिन अल्पसंख्यक लोगों का उत्पीड़न आम बात हो चली है।

यहां पर अल्पसंख्यक शब्द का अर्थ किसी धर्म से नहीं बल्कि गांव-मोहल्ले या क्षेत्रीय संख्याबल में कमी से है और उनकी रक्षा करने में प्रशासनिक विफलता ही तमाम विरोधाभासों के बढ़ने की मौलिक वजह है। इसके उलट हर क्षेत्र में संख्या बल में कम पर आर्थिक और बौद्धिक रूप से संपन्न एक शातिर जमात मिलती है, जो पर्दे के पीछे

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *